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"स्त्री को या तो सीता होना है या दुर्गा, बीच का कुछ भी सम्माननीय नहीं है" यह सोच कैसे बदलेगी?

"स्त्री को या तो सीता होना है या दुर्गा, बीच का कुछ भी सम्माननीय नहीं है" यह सोच कैसे बदलेगी?

Monday March 07, 2016 , 8 min Read

इन दिनों स्त्री मुक्ति, स्त्री समस्याएं, स्त्री चिंतन, स्त्री सरोकार, स्त्री जागरण आदि शब्दों का खूब हल्ला मचा हुआ है। कहीं गोष्ठियां, सभा, सेमिनार हो रहे हैं तो कहीं पुस्तकों रिपोर्टों की भरमार है। साहित्य राजनीति, मीडिया पत्र पत्रिकाएं, सब किसी न किसी रूप में इससे आक्रांत हैं। अकादमिक वर्ग भी इस चकाचौंध से अछूता नहीं। आज लेखों पत्रों वार्ताओं इंटरव्यू से लेकर विज्ञापनों तक में करियर ओरिएंडेट महिलाओं के साथ घरेलु महिलाओं के विचारों को भी दिखाने की होड़ सी मची हुई है। इन सारी तामझाम से निकलकर दो चीज़ें सामने आ रही हैं-पहली बात यह है कि आज से सिर्फ २० साल पहले तक इस तरह की मुखर स्त्री विमर्श के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता था और यह भी कि यह सब केवल बाज़ार के समीकरण के कारण संभव हुआ हो ऐसा भी नहीं। इसके पीछे अधिक मजबूत रूप से एक लंबी विकास प्रक्रिया जद्दोजहद और प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप से लड़ी गई अस्मिता तथा अधिकार की लड़ाई का प्रतिफलन भी है। इस तामझाम ने अपने सारे ऊपरी आवरण पर बाज़ार के उपयोगितावादी सिद्धांत के बावजूद एक बड़ा काम यह कर डाला है कि स्त्री से जुड़े प्रश्नों को एक भौतिक आधार प्रदान कर दिया है। कुछ हद तक समाज में एक नई बहस और नई चेतना का कारक भी बन रहा है। विमर्श के इस शोरगुल वाले दौर के बीच भी इसे हम आगामी बदलाव की पूर्व सूचना की तरह देख सकते हैं। हालांकि इस शुभ दिखने वाले रूप के साथ भी उसका दूसरा पक्ष भी स्पष्ट दिखाई पड़ रहा है। अपनी प्रतिरोध की धारा के समानांतर चलता यह दूसरा पक्ष बाज़ार का है।

रूकैया सखावत हुसैन ने सौ वर्ष पहले एक कहानी ‘सुल्ताना का सपना’ लिखी थी। लेकिन इस कहानी में किसी भी रास्ते की तलाश के बजाए निरीह कल्पना थी और इस कल्पना में आकांक्षा का वह रूप व्यक्त हुआ था जहां एक ऐसी दुनिया हो जिसमें पुरुष स्त्री के सारे काम करे और स्त्रियां पुरुषों की तरह आचरण करते हुए आहार-विहार से लेकर हुकूम देने जैसा काम करें। सौ वर्ष पहले लड़कियों का सपना भी कुछ इसी तरह का था। जैसा कि लेखिका ने अपनी कहानी में दिखाया था। हर लड़की उस समय अपनी समस्याओं से निजात का एक ही उपाय देख पाती थी कि काश! वह लड़का होती। या फिर अलगे जन्म में ईश्वर उसे लड़का ही बनाए। लेकिन आज लड़कियों की यह आकांक्षा बदली है। आज लड़कियां अपनी इसी ज़िंदगी को समस्यारहित बनाना चाहती हैं। वे लड़की के रूप में ही अपनी योग्यता सिद्ध करना चाहती हैं। शाद इसीलिए जिस देश में २० वर्ष पहले तक इस तरह का मुखर विमर्श दिखाई नहीं पड़ता था उसी देश में इसके उपयोग और उपभोग की तमाम संभावनाओं को देखते हुए बड़े बाज़ार की तर्ज पर इस विषय को भी बाजारीकरण के भयानक गिरफ्त में लेकर इसके महत्व, संघर्ष और असली रूप को इतना विरुपित कर दिया जा रहा है कि आज की पीढ़ी के लिए इसके रहस्य को समझना आसान नहीं रह गया।


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विमर्श का यह दूसरा पक्ष बहुत प्रबलता के साथ बौद्धिक विमर्श की अपेक्षा अधिक तीव्रता से अपना स्पेस बढ़ाता जा रहा है। यह केवल विज्ञापन की दुनिया तक ही सीमित नहीं है। इसके दायरे में पत्रकारिता, फिल्म और अकादमिक वर्ग भी आ जाता है। इसका दबाव और प्रभाव व्यापक है। चूंकि बाज़ार की भाषा मुनाफे की भाषा है इसलिए यहां स्त्री और उससे जुड़े विमर्श के कारण बनाई गई आधुनिक स्त्री की छवि मुनाफे की चीज़ है। यहां इस विमर्श को सजावट के भड़कीले सामान की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है। स्त्री के नई दुनिया के धोखे में उपयोग की सामग्री बनते जाने की प्रक्रिया की तरफ ढकेला जा रहा है। दिनरात उसे उसकी देह बुद्धि और क्षमताओं का एक नया सीमित दायरा समझाया जा रहा है। उसकी पूरी सोच को गतिहीन जड़ दिशा की तरफ मोड़ने के भीषण प्रयत्न जारी हैं। कोई एक विश्व सुंदरी चुनी जाती है उसके पीछे की राजनीति के बजाय उसके चुने जाने को आम आदमी के सामने इस तरह विज्ञापित किया जाता है कि आम लड़कियां दिग्भ्रमित हो जाएं। उन्हें लगे कि इससे बेहतर करियर और कुछ भी नहीं। जबकि असलियत में आम लड़कियां कुछ हासिल कर पाने की बजाय अपने को शोषण के जाल में फंसा लेती हैं। मॉडल बनने या सुंदरी चुने जाने की ललक के पीछे लाखों लड़कियों की ज़िंदगी नरक हो जाती है। इसे यह कहकर आसानी से नहीं टाला सकता कि यह तो उन तमाम लड़कियों का अपना फैसला हो सकता है। बल्कि यह तो उनकी चेतना को कुंद कर दिए जाने का परिणाम है। सुंदरी चुने जाने की ललक में दिशाहीन हो गई तमाम लड़कियों की ज़िंदगी आज सामने है। इसी प्रकार दृश्य मीडिया के जितने भी चैनल हैं उनपर पारिवारिक धारावाहिक के नाम पर इस समय जितने सीरियल दिखाए जा रहे हैं वे सभी बेवजह अंतर्वैवाहिक संबंधों को प्रमोट करने में लगे हुए हैं। इस तरह बेहद उपरी तौर पर स्त्री के उपयोग के तरीके, रास्ते और साधन कुछ बदला हुआ सा भ्रम देने लगते हैं। जबकि अपने वास्तविक स्वरुप में वे पहले से अधिक क्रूर और आक्रामक हो चुके हैं।

सामान्य सहज प्राकृतिक प्राणी के रूप में स्त्रियों को कभी नहीं देखा गया। सदियों से उसके प्राकृतिक रूप को काल्पनिक रूप से ढंककर विरुपित किया गया है। स्त्री को लेकर बनाए गए मिथक उसके मनुष्यगत प्राकृतिक व्यवहार से इतर है। मिथक का सीधा सा अर्थ है सौंदर्य, पवित्रता, देवत्व। पुरुष द्वारा बना दी गई स्त्री की काल्पनिक रूढ़ छवि। इस काल्पनिक रूढ़ छवि ने सिर्फ स्त्रियों को ही नुकसान नहीं पहुंचाया बल्कि समाज और स्वयं पुरुष को भी इससे बहुत अधिक नुकसान पहुंचा। इस तरह पुरुषों द्वारा बना दी गई यह काल्पनिक रूढ़ छवि स्त्रियों के साथ-साथ पुरुषों के भीतर भी कुंठा और असंतोष का कारण बनती है। क्योंकि जैसी काल्पनिक छवि गढ़ी गई है प्राकृतिक रूप से उसपर स्त्रियां खरी नहीं उतर सकतीं। यदि स्त्रियां उस रुढ़ छवि पर खरी नहीं उतर सकतीं तो उनके लिए दूसरी रुढ़ छवि दुर्गा की है। उन्हें या तो सीता होना है या दुर्गा। बीच का कुछ भी सम्माननीय नहीं है। यह दोनों ही छवियां अतिचरित्रों का सृजन करती हैं, जो सामान्य तो हो ही नहीं सकता। इन दोनों एक्सट्रीम चरित्रों के बीच आने वाली चरित्र या तो बेहद निम्न मान लिए जाते हैं या फिर खल दुष्टा कुल्टा। और फिर पुरुष इस रूढ़ छवि के अप्राप्य की कुंठा की स्त्री के ही सिर मढ़ता है। परिणामस्वरुप सारा समाज इससे आक्रांत है। स्त्री और वह भी मध्यमवर्गीय स्त्री सबसे ज्यादा स्वयं को लेकर आतंकित है। क्योंकि कितने भी उपाय और प्रयत्न किए जाएं तब भी प्रकृति प्रदत्त शरीर में आरोपित छवि से कुछ न कुछ कम तो रह ही जाता है। यह रूढ़ छवि अच्छा हथियार है। स्त्री को सदा के लिए हीन और कमतर बना देने का नतीजा यह कि दुनियाभर की सौंदर्य प्रसाधन कंपनियां इस डरी हुई स्त्री के रूढ़ छवि को अधिक से अधिक भुनाने पर तुली हुई है। एक प्रसाधन के इतने अधिक ब्रांड बाज़ार में मौजूद हैं कि यह डरी हुई स्त्री कन्फ्यूज्ड है। ये ढेर सारी चीज़ें ऊपर से इतनी आकर्षक और मनलुभावन दिखाई पड़ रही हैं कि बड़े चालाक तरीके से वे स्त्री को उसकी काल्पनिक छवि की याद दिलाती रहती हैं। हाँट करती रहती हैं कि वह वैसी नहीं है और वैसी बने तो कैसे बने। भारत में ही पिछले कुछ वर्षों में शहरों, कस्बों गांवों तक में जिस तरह ब्यूटी पार्लरों की बाढ़ आई है वह उसकी चेतना को कुंद करते जाने की मुहिम का एक हिस्सा है। अंजाने में इन ब्यूटी पार्लरों ने स्त्री को स्वरोज़गार के लिए एक और जगह उपलब्ध करा देता है।

ऊपरी तौर पर यह सारा परिदृष्य यह भ्रम देने लगता है कि स्त्री की स्थिति पहले से बेहतर हुई है। शिक्षा और कुछ सुविधाओं ने कहीं-कहीं उसे बेहतर भी किया है। पर यह संख्या तो ऊंगलियों पर गिनने भर की है। जबकि यथार्थ स्थिति में स्त्रियों को बदली हुई परिस्थितियों में दुगुनी तिगुनी जिम्मेदारियों और काम के बोझ का सामना करना पड़ रहा है। जिस अनुपात में घर से बाहर की दुनिया बदली है उस अनुपात में स्त्री के लिए घर के भीतर के काम और घर के भीतर की सोच नहीं बदली। बाहर कंप्यूटर और इंटरनेट पर काम करती, प्रशासनिक पद संभालती तथा ऑफिस के अन्य कामों में जुटी स्त्री से घर के भीतर पुरातन बहू के रुप को निभाने की अपेक्षा की जाती है। बाहर शोषण के तरीके अधिक जटिल हुए हैं संकट बढ़ा है तो घर के भीतर आधिपत्य बनाए रखने के तरीके शोषण और हिंसा की स्थितियां भी बढ़ी हैं।

ऐसा नहीं है कि संख्या में कम इन स्त्रियों ने घर की सुख सुविधा जुटाने के सिवाय कुछ नहीं किया। इन स्त्रियों ने काम के दोहरे तिहरे बोझ के बावजूद अपने दायरे बढ़ाए हैं। लगभग हर क्षेत्र में अपनी भागीदारी सुनिश्चित ही नहीं की, अपनी क्षमताओं को लगातार प्रमाणित भी किया। खेल जगत हो, प्रशासन, क़ानून, पत्रकारिता, संसद या तकनीकी क्षेत्र, सभी जगह स्त्रियों ने अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज कराई है। इस लिए आज केवल वैश्विक परिदृश्य में ही नहीं भारतीय परिदृश्य में भी स्त्रियों के भीतर कठिन परिस्थितियों के बीच में अपनी पहचान के लिए सजगता बढ़ी है। यह अकारण नहीं है कि स्त्रियां आज की दुनिया में आधुनिक स्त्री के नाम पर दिखाई-बताई और दिमाग में बैठाई जा रही स्त्री छवि के धोखे को पहनाने की कोशिश भी कर रही है। और अपने आप को जानने, समझने की भी। मनुष्योचित समान अधिकार व्यवहार के साथ सामाजिक संतुलन की वकालत कर रही स्त्रियां निश्चित रूप से समझदारी और सजगता की तरफ कदम बढ़ाती स्त्रियां हैं।