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जहां भी आज़ाद रूह की झलक पड़े, समझना वह मेरा घर है- अमृता प्रीतम

जहां भी आज़ाद रूह की झलक पड़े, समझना वह मेरा घर है- अमृता प्रीतम

Thursday August 31, 2017 , 8 min Read

अमृता प्रीतम उन साहित्यकारों में थीं जिनकी कृतियों का अनेक भाषाओं में अनुवाद हुआ। अपने अंतिम दिनों में अमृता प्रीतम को भारत का दूसरा सबसे बड़ा सम्मान पद्मविभूषण प्राप्त हुआ। उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से पहले ही अलंकृत किया जा चुका था। 

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अमृता प्रीतम की प्रेम में डूबी हुई कविताएं कच्ची उम्र में अच्छी तो लगती हैं, पर समझ में नहीं आती हैं। जाने कैसा जादू होता है उनकी कविताओं में। ऐसा लगता था मानो वह उम्र भर खुद से ही उलझती रहीं।

साहसी, रूढ़ि-विद्रोही अमृता ने अपनी रचनाओं से समाज को वह आईना दिखाया, जिसमें झांकने की हर किसी की हिम्मत नहीं होगी, खासकर पुरुष प्रधान समाज उसमें अपना रुख देखते ही डर जाता है। वह लेखिका ही नहीं थीं, उन्होंने मंचों पर खुलकर एक धर्म मुक्त समाज बनाने की वकालत की। 

अमृता प्रीतम ने एक दिन लिखा - 'सोच रही हूं, हवा कोई भी फ़ासला तय कर सकती है, वह आगे भी शहरों का फ़ासला तय किया करती थी। अब इस दुनिया और उस दुनिया का फ़ासला भी जरूर तय कर लेगी।' साहित्य अकादमी, पद्मविभूषण आदि से समादृत एवं पिंजर, रसीदी टिकट, अक्षरों के साये, जैसी पुस्तकों की लोकप्रिय लेखिका, जिनका आज (31 अगस्त) स्मृति-दिवस (जयंती) है, उन्हें जानने से पहले आइए, उनकी एक ऐसी कविता पढ़ते हैं, जिसके साथ एक यादगार इतिहास जुड़ा हुआ है-

आज कहूं मैं ‘वारिस शाह’ से, कहीं कब्रों से तू बोल,

वो राज़ किताबी इश्क़ का, कोई अगला पन्ना खोल,

इक रोई थी बेटी पंजाब की, तूने लिख-लिख विलाप किया,

आज रोएं लाखों बेटियां, कहें तुझे ओ वारिस शाह,

हे दर्दमंदो के हमदर्द, उठ देख अपना पंजाब,

बिछी हुई हैं लाशें खेतो में, और लहू से भरी है चेनाब,

टप-टप टपके कब्रों से, लहू बसा है धरती में,

प्यार की शहजादियां, रोएं आज मज़ारों पे,

आज सभी फरेबी बन गए, हुस्न इश्क़ के चोर,

आज कहां से लाएं ढूंढ कर, वारिस शाह एक और!

(भावार्थ : आज मैं वारिस शाह से कहती हूं, अपनी क़ब्र से बोल, और इश्क़ की किताब का कोई नया पन्ना खोल, पंजाब की एक ही बेटी (हीर) के रोने पर तूने पूरी गाथा लिख डाली थी, देख, आज पंजाब की लाखों रोती बेटियां तुझे बुला रहीं हैं, उठ! दर्दमंदों को आवाज़ देने वाले! और अपना पंजाब देख, खेतों में लाशें बिछी हुईं हैं और चेनाब लहू से भरी बहती है)

अज्ज आखां वारिस शाह नूं पंजाबी लेखक और कवयित्री अमृता प्रीतम द्वारा रचित एक प्रसिद्ध कविता है, जिसमें 1947 के भारत विभाजन के समय हुए पंजाब के भयंकर हत्याकांडों का अत्यंत दुखद वर्णन है। यह कविता ऐतिहासिक मध्यकालीन पंजाबी कवि वारिस शाह को संबोधित करते हुए लिखी गई है, जिन्होंने मशहूर पंजाबी प्रेमकथा हीर-राँझा का सबसे विख्यात प्रारूप लिखा था। वारिस शाह से कविता आग्रह करती है कि वह अपनी क़ब्र से उठें, पंजाब के गहरे दुःख-दर्द को कभी न भूलने वाले छंदों में अंकित कर दें और पृष्ठ बदल कर इतिहास का एक नया दौर शुरू करें क्योंकि वर्तमान का दर्द सहनशक्ति से बाहर है। यह कविता भारतीय पंजाब और पाकिस्तानी पंजाब दोनों में ही सराही जाती रही है। 1959 में बनी पाकिस्तानी पंजाबी फ़िल्म 'करतार सिंह' में इनायत हुसैन भट्टी ने इसे गीत के रूप में प्रस्तुत किया है।

अमृता प्रीतम पंजाबी के सबसे लोकप्रिय लेखकों में से एक रही हैं। पंजाब (भारत) के गुजरांवाला जिले में पैदा हुईं। अमृता प्रीतम को पंजाबी भाषा की पहली कवयित्री माना जाता है। उन्होंने कुल लगभग सौ पुस्तकें लिखीं, जिनमें उनकी चर्चित आत्मकथा 'रसीदी टिकट' भी शामिल है। अमृता प्रीतम उन साहित्यकारों में थीं जिनकी कृतियों का अनेक भाषाओं में अनुवाद हुआ। अपने अंतिम दिनों में अमृता प्रीतम को भारत का दूसरा सबसे बड़ा सम्मान पद्मविभूषण प्राप्त हुआ। उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से पहले ही अलंकृत किया जा चुका है। उनका बचपन लाहौर में बीता। किशोरावस्था से वह कविता के साथ और भी विधाओं में लिखने लगीं। उन्हें पंजाब सरकार के भाषा विभाग पुरस्कार, बल्गारिया के वैरोव पुरस्कार, भारत के ज्ञानपीठ पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया।

अमृता प्रीतम की प्रेम में डूबी हुई कविताएं कच्ची उम्र में अच्छी तो लगती हैं, पर समझ में नहीं आती हैं। जाने कैसा जादू होता है उनकी कविताओं में। ऐसा लगता था मानो वह उम्र भर खुद से ही उलझती रहीं। आत्मकथा ‘रसीदी टिकट’ में उन्होंने मशहूर गीतकार-शायर साहिर लुधियानवी से अपनी बेपनाह मोहब्बत के किस्से भी बिना किसी झिझक के कह दिये। बंटवारे में लाखों लोगों को अपनी जन्मभूमि छोड़ पलायन करना पड़ा था, उनमें से एक अमृता भी थीं। उनका परिवार भी हिन्दुस्तान आ गया था मगर उनका दिल अक़्सर लाहौर की गलियों में भटकता रहता था। विभाजन के वक़्त वह ट्रेन में बैठ कर दिल्ली आ रही थीं, तब उन्होंने ‘आज अख्खां वारिस शाह नूं’ लिखी। ग्यारह साल की उम्र में ही उनकी मां गुज़र गईं। तन्हाई के मौसमों में कागज़ और कलम ने अमृता को सहारा दिया और वह अपने मन की बातें कविताओं के ज़रिए बयां करने लगीं। महज़ सोलह साल की उम्र में उनका पहला कविता संग्रह ‘अमृत लहरें’ (1936) प्रकाशित हुआ। सोलह साल की उम्र में ही उनका विवाह ‘प्रीतम सिंह’ से हो गया और ‘अमृता कौर’ अमृता प्रीतम बनीं मगर इस रिश्ते में लगातार दरारें आती रही और अंततः 1960 में उनका तलाक हो गया।

उपन्यासकार के रूप में अमृता प्रीतम की पहचान ‘पिंजर’ से हुई। रसीदी टिकट में वह लिखती हैं- 'एक सपना था कि एक बहुत बड़ा किला है और लोग मुझे उसमें बंद कर देते हैं। बाहर पहरा होता है। भीतर कोई दरवाजा नहीं मिलता। मैं किले की दीवारों को उंगलियों से टटोलती रहती हूं, पर पत्थर की दीवारों का कोई हिस्सा भी नहीं पिघलता। सारा किला टटोल-टटोल कर जब कोई दरवाजा नहीं मिलता, तो मैं सारा जोर लगाकर उड़ने की कोशिश करने लगती हूं। मेरी बांहों का इतना जोर लगता है कि मेरी सांस चढ़ जाती है। फिर मैं देखती हूं कि मेरे पैर धरती से ऊपर उठने लगते हैं। मैं ऊपर होती जाती हूं, और ऊपर, और फिर किले की दीवार से भी ऊपर हो जाती हूं। सामने आसमान आ जाता है। ऊपर से मैं नीचे निगाह डालती हूं। किले का पहरा देने वाले घबराए हुए हैं, गुस्से में बांहें फैलाए हुए, पर मुझ तक किसी का हाथ नहीं पहुंचता।'

साहसी, रूढ़ि-विद्रोही अमृता ने अपनी रचनाओं से समाज को वह आईना दिखाया, जिसमें झांकने की हर किसी की हिम्मत नहीं होगी, खासकर पुरुष प्रधान समाज उसमें अपना रुख देखते ही डर जाता है। वह लेखिका ही नहीं थीं, उन्होंने मंचों पर खुलकर एक धर्म मुक्त समाज बनाने की वकालत की। विश्व के कई देशों और सभ्यताओं के साहित्यकारों के बीच, अपनी विद्रोही रचनाएं पढ़ीं। उन्होंने दूसरे विद्रोही कवियों-लेखकों को भी भरपूर सुना और समझा। वे पहली महिला साहित्यकार थीं जिन्हें ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ से नवाज़ा गया।

इस मशहूर लेखिका को साहिर लुधियानवी से बेपनाह मोहब्बत थी। साहिर भी उन्हें उतना ही टूटकर चाहते थे मगर प्रेमालाप से आगे दोनो ने आपस में कोई और कदम नहीं रखा। दोनों एक दूसरे के प्यार में जीवन भर सुलगते रहे। लाहौर में साहिर उनके घर आया करते थे, कुछ नहीं कहते, बस एक के बाद एक सिगरेट पिया करते थे। उनके जाने के बाद अमृता उनकी सिगरेट की बटों को उनके होंठों के निशान के हिसाब से दोबारा पिया करती थीं। इसी तरह उन्हें सिगरेट पीने की लत लग गई। दोनों एक दूसरे को प्यार भरे खत लिखते मगर साहिर के लाहौर से मुंबई चले जाने और अमृता के दिल्ली में बस जाने के बाद उनके बीच मुलाकातों का सिलसिला टूट सा गया।

कहते हैं कि साहिर के कदम गायिका सुधा मल्होत्रा की ओर बहक चुके थे, इससे अमृता के दिल को गहरा आघात लगा। एक और प्रेम-कथा इन रचनाकारों की है। अमृता से ‘इमरोज़’ को इश्क़ हो गया। दोनों एक साथ रहने लगे अलग-अलग कमरों में। इमरोज़ को साहिर और अमृता की दोस्ती पता थी मगर वह इससे कभी विचलित नहीं हुए। अमृता प्रीतम रात के समय लिखना पसंद करती थीं। जब न कोई आवाज़ होती, हो न टेलीफ़ोन की घंटी बजती हो और न कोई आता-जाता हो। इमरोज़ लगातार चालीस-पचास बरस तक रात के एक बजे उठ कर उनके लिए चाय बना कर चुपचाप उनके आगे रख देते और फिर सो जाया करते थे। अमृता को इस बात की ख़बर तक नहीं होती थी। इमरोज़ उनके ड्रायवर भी थे। वे हर जगह अमृता को अपने स्कूटर पर छोड़ने जाया करते थे। इसी तरह दोनों का ‘खामोश-इश्क़’ उम्र भर चलता रहा। अमृता का आखिरी समय बहुत तकलीफों और दर्द में बीता। बाथरूम में गिर जाने की वजह से उनकी हड्डी टूट गई थी, जो कभी ठीक नहीं हुई और इस दर्द ने उनका दामन कभी नहीं छोड़ा।

इमरोज़ ने अंतिम दिनों में उनका बहुत ख़्याल रखा। उन्होंने अमृता की बीमारी को भी अपने प्यार से खूबसूरत बना दिया था। 31 अक्टूबर 2005 में उन्होंने आख़िरी सांसें लीं। नवंबर 2011 की बात है। कुछ लोगों ने आवाज उठाई कि स्वर्गीय अमृता प्रीतम की आवासीय धरोहर, उनके हौज खास के मकान को बचाकर उसे राष्ट्रीय धरोहर के रूप में संजोया जाए। अनेक साहित्य प्रेमियों ने इसके लिए राष्ट्रपति एवं दिल्ली सरकार से अनुरोध किया। यद्यपि अमृता प्रीतम दुनिया छोड़ने से पहले अपने अता-पता के बारे में कुछ इस तरह के शब्द दुनिया को दे गई थीं-

आज मैंने अपने घर का नम्बर मिटाया है

और गली के माथे पर लगा गली का नाम हटाया है

और हर सड़क की दिशा का नाम पोंछ दिया है

पर अगर आपको मुझे ज़रूर पाना है

तो हर देश के, हर शहर की, हर गली का द्वार खटखटाओ

यह एक शाप है, यह एक वर है

और जहाँ भी आज़ाद रूह की झलक पड़े,

समझना वह मेरा घर है।

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