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आज के दिन के लिए केदारनाथ अग्रवाल की 'वसंती हवा' ने मचाई थी ऐसी मस्तमौला धूम

वसंत पंचमी पर विशेष: हँसी ज़ोर से मैं, हँसी सब दिशाएँ, हवा हूँ, हवा मैं बसंती हवा हूँ...

आज के दिन के लिए केदारनाथ अग्रवाल की 'वसंती हवा' ने मचाई थी ऐसी मस्तमौला धूम

Monday January 22, 2018 , 8 min Read

आज वसंत पंचमी है, बाजारों में कल रात तक रही दुकानों पर पतंगबाजों की धक्कामुक्की, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी पिछले दिनो पतंगबाजी का मजा लिया। मंदिरों में पूजा-आराधना लेकिन शब्द-सारथियों के लिए तो आज के दिन के कुछ और ही रंग, कवि केदारनाथ अग्रवाल की वसंती हवा तो जैसे पूरे जमाने को हंसाती-खिलखिलाती, फूल-पत्तियों को झकझोरती चली आ रही है पीतवर्णा धरती के ओर-छोर तक, सरसों से नहाए खेतों, बौर ओढ़ आम्र तरुओं की शाखा-शाखा दर फुदकती हुई।

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इस वसंत ने किसी को भी नहीं छोड़ा। कालिदास से लेकर महाप्राण निराला तक. टैगोर से लेकर शैली तक। क्या फूल, क्या लताएं, क्या हवा और क्या हृदय - सभी वसंत के प्रहार से विकल हो उठते हैं। 

आज वसंत पंचमी है। वसंत के आने का दिन, अगवानी का दिन, पूजा-आराधना का दिन और सरस्वती से शब्द-स्नेह पाने का दिन। एक उत्सव-दिवस पतंगें उड़ाते हुए, पीत वसना धरती को आंख-आंख निहारते, पल-पल प्रसन्नचित्त होते हुए। कवियों ने जाने क्या क्या लिखा है इस दिन के लिए। देशभर के पतंगबाज जाने जाने कैसी कैसी पतंगें खरीद लाए होंगे मुंडेरों-छतों से आकाश चूमने के लिए। निराला को वसंत का शब्द-शिल्पी कहा जाता है, तो इस पीतवर्णी दिवस के बारे कुछ उन्हीं के सिरे से कहते हैं - 'रँग गई पग-पग धन्य धरा, हुई जग जगमग मनोहरा। वर्ण गन्ध धर, मधु मरन्द भर, तरु-उर की अरुणिमा तरुणतर खुली रूप - कलियों में पर भर स्तर स्तर सुपरिसरा। गूँज उठा पिक-पावन पंचम खग-कुल-कलरव मृदुल मनोरम, सुख के भय काँपती प्रणय-क्लम वन श्री चारुतरा....।'

इस वसंत ने किसी को भी नहीं छोड़ा। कालिदास से लेकर महाप्राण निराला तक. टैगोर से लेकर शैली तक। क्या फूल, क्या लताएं, क्या हवा और क्या हृदय - सभी वसंत के प्रहार से विकल हो उठते हैं। कालिदास लिखते हैं - 'द्रुमा: सपुष्पा: सलिलं स्पद्मं, स्त्रियः सकामः पवनः सुगंधि:, सुखा: प्रदोषा दिवसाश्च रम्या: सर्वमम् प्रियम् चारुतरम् वसंते...।' आज का दिन कितना सुरम्य, कितना स्मरणीय - 'सखि, वसंत आया...भरा हर्ष वन के मन, नवोत्कर्ष छाया...।' महाप्राण के शब्द इस तरह फूट पड़े आज के दिन के लिए और केदारनाथ अग्रवाल की 'वसंती हवा' ने तो ऐसी मस्तमौला धूम मचाई कि कुछ पूछिए मत -

हवा हूँ, हवा मैं

बसंती हवा हूँ।

सुनो बात मेरी -

अनोखी हवा हूँ।

बड़ी बावली हूँ,

बड़ी मस्त्मौला।

नहीं कुछ फिकर है,

बड़ी ही निडर हूँ।

जिधर चाहती हूँ,

उधर घूमती हूँ,

मुसाफिर अजब हूँ।

न घर-बार मेरा,

न उद्देश्य मेरा,

न इच्छा किसी की,

न आशा किसी की,

न प्रेमी न दुश्मन,

जिधर चाहती हूँ

उधर घूमती हूँ।

हवा हूँ, हवा मैं

बसंती हवा हूँ!

जहाँ से चली मैं

जहाँ को गई मैं -

शहर, गाँव, बस्ती,

नदी, रेत, निर्जन,

हरे खेत, पोखर,

झुलाती चली मैं।

झुमाती चली मैं!

हवा हूँ, हवा मै

बसंती हवा हूँ।

चढ़ी पेड़ महुआ,

थपाथप मचाया;

गिरी धम्म से फिर,

चढ़ी आम ऊपर,

उसे भी झकोरा,

किया कान में 'कू',

उतरकर भगी मैं,

हरे खेत पहुँची -

वहाँ, गेंहुँओं में

लहर खूब मारी।

पहर दो पहर क्या,

अनेकों पहर तक

इसी में रही मैं!

खड़ी देख अलसी

लिए शीश कलसी,

मुझे खूब सूझी -

हिलाया-झुलाया

गिरी पर न कलसी!

इसी हार को पा,

हिलाई न सरसों,

झुलाई न सरसों,

हवा हूँ, हवा मैं

बसंती हवा हूँ!

वह भला कौन होगा, जो कवि-हृदय हो और वसंत पर न रीझे, जो भी स्वयं को सरस्वती पुत्र जाने-माने, शब्दों की दुनिया में रहे और हरे-भरे खेतों, वन-उपवनों की मकरंदी राह से न गुजरना चाहे। इस राह कविवर त्रिलोचन कुछ इस तरह गुजरे........

गेहूँ जौ के ऊपर सरसों की रंगीनी

छाई है, पछुआ आ आ कर इसे झुलाती

है, तेल से बसी लहरें कुछ भीनी भीनी

नाक में समा जाती हैं, सप्रेम बुलाती

है मानो यह झुक-झुक कर। समीप ही लेटी

मटर खिलखिलाती है, फूल भरा आँचल है,

लगी किचोई है, अब भी छीमी की पेटी

नहीं भरी है, बात हवा से करती, बल है

कहीं नहीं इस के उभार में। यह खेती की

शोभा है, समृद्धि है, गमलों की ऐयाशी

नहीं है, अलग है यह बिल्कुल उस रेती की

लहरों से जो खा ले पैरों की नक्काशी।

यह जीवन की हरी ध्वजा है, इसका गाना

प्राण प्राण में गूँजा है मन मन का माना।

वसंत पर रीझते हुए कवि उदय प्रकाश अपने भिन्न विम्ब में कुछ इस तरह खरे-खरे रसमसा उठते हैं, जैसे दुनियादारी है कि मन खाली रहने नहीं देती - 'रेलगाड़ी आती है, और बिना रुके चली जाती है, जंगल में पलाश का एक गार्ड लाल झंडियाँ दिखाता रह जाता है।' कवि सोचता है, वसंत आ गया है। वह सोचता है कि वसंत को जितना अनुराग और प्रेम साहित्यकारों से मिला है, उसे देखकर क्या दूसरी ऋतुओं को रश्क़ नहीं होता होगा! परदेश में रह रहे अनिल जनविजय कुछ इस तरह के मनोभावों से गुजरते हैं -

मैंने कहा...

अकेला हूँ मैं मॉस्को में

वसंत आया मेरे पास भागकर

साथ लाया टोकरी भर फूल

बच्चों की खिलखिलाहटें

पेड़ों पर हरी पत्तियाँ

मैंने कहा...

अकेला हूँ मैं

याद आई तुम्हारी

प्रेम आया

इच्छा आई मन में तुम्हें देखने की

मैंने कहा...

अकेला नहीं हूँ मैं

स्नेह है तुम्हारा मेरे साथ

लगाव है

तुम्हारे चुंबनों की निशानियाँ हैं

मेरे चेहरे पर अमिट

स्मृति में तुम्हारा चेहरा है

तुम्हारी चंचल शरारतें हैं

मैंने कहा...

अकेला नहीं हूँ मैं

प्रिया है मेरी, मेरे पास

वसंत के रूप में

मेरे साथ।

सुरेश ऋतुपर्ण लिखते हैं - 'वसंत से वसंत की राह में एक पड़ाव है पतझर, राही ऋतु-चक्र थक कर सुस्ताता है जहाँ पल-भर वसंत के लालच में, जिसने ठुकराया पतझर, जीवन उसका निष्फल वंचना-भर!' लेकिन स्वप्निल श्रीवास्तव भी उदय प्रकाश की तरह शब्द-गह्वर में तिर उठते हैं-

वसंत आएगा इस वीरान जंगल में जहाँ

वनस्पतियों को सिर उठाने के ज़ुर्म में

पूरा जंगल आग को सौंप दिया गया था

वसन्त आएगा दबे पाँव हमारे-तुम्हारे बीच

संवाद कायम करेगा उदास-उदास मौसम में

बिजली की तरह हँसी फेंक कर वसंत

सिखाएगा हमें अधिकार से जीना।

कोई भी तो ऐसा नहीं, जिसके हृदय को वसंत की यह हवा विचिलित न कर देती हो! चली ही आ रही है। आज के जन-कवि तक पहुंचते-पहुंचते भी न इसका रूप बदला। ऋतुराज समस्त प्रकार के भेदभाव से परे कवि अश्वघोष के शब्दों में -

मुक्ति का उल्लास ही हर ओर छाया

प्यार के इस लोक को किसने बनाया?

रूप, रस और गंध की सरिता मचलती

सुधि नहीं रहती यहाँ पल को भी पल की

विश्व व्यंजित नेह कन कण में समाया

प्यार के इस लोक को किसने बनाया?

आचरण को व्याकरण भाता नहीं है

शब्द का संदर्भ से नाता नहीं है

मुक्ति के विश्वास की उन्मुक्त काया

प्यार के इस लोक को किसने बनाया?

मौसमों ने त्याग कर ऋतुओं के डेरे

कर लिए इस लोक में आकर बसेरे

हार में भी जीत का आनंद आया

प्यार के इस लोक को किसने बनाया?

हम आज चाहे जितना आधुनिक क्यों न हो गए हों, हर युग में वासंती हवा आम के बौर झकझोरती, फूल-पत्तियों से खेलती-इठलाती नटखट बच्चे के तरह रंध्र-रंध्र में समाती चली आती रही है और उसके संग-संग तितलियों के झुंड, कोयलों की कूक शोर मचाती हुई। इसाक अश्क कहते हैं -

बिना टिकट के गंध लिफ़ाफ़ा

घर-भीतर तक डाल गया मौसम

रंगों डूबी दसों दिशाएँ

विजन डुलाने लगी हवाएँ

दुनिया से बेख़ौफ़ हवा में

चुंबन कई उछाल गया मौसम।

दिन सोने की सुघर बाँसुरी

लगी फूँकने...फूल-पाँखुरी,

प्यासे अधरों पर ख़ुद झुककर

भरी सुराही ढाल गया मौसम।

वसंत आनंद से भर देता है। जाने कितने तरह के आनंद से। उनमें ही एक आनंद आज के दिन पतंगें उड़ाने का। नई ऊर्जा और चेतना का संचार करने वाला वसंत पंचमी पर्व आज धूमधाम से मनाया जा रहा है। पतंगबाजी के शौकीनों को इस खास दिन का बेसब्री से इंतजार रहता है। इतना ही नहीं पतंगें काटने को लेकर सट्टे की तर्ज पर लाखों की रकम दांव पर लगाई जाती है। बीती रात तक दुकानों पर पतंग व मांझा खरीदने के लिए लोगों की भीड़ लगी रही। बच्चों को डोरेमॉन, मोटू-पतलू और छोटी भीम की पन्नीवाली पतंग का क्रेज दिखा। हालांकि पिछली बार के मुकाबले इस बार पतंगों की कीमत में करीब 10 से 20 प्रतिशत का उछाल है। वसंत पंचमी पर पतंगबाजी के साथ ही लोग लाखों की रकम पर दांव लगाते हैं। हार-जीत को लेकर लाखों की रकम के वारेन्यारे होते हैं।

इस बार बाजार में फुटकर में दो से लेकर दस रुपये तक की पतंग है। थोक में दो रुपये वाली पतंग 45 रुपये कोड़ी (25 पतंग), चार रुपये वाली पतंग 85 रुपये कोड़ी बिक रही हैं। मांझा 90 से 110 रुपये गिट्टी बिक रहा है। पन्नी वाली पतंग की ज्यादा डिमांड है। प्लास्टिक की खाली चरखी 20 से 200 रुपये और लकड़ी की खाली चरखी 10 से 150 रुपये की बिक रही है। सद्दल का गिट्टा 10 से लेकर 60 रुपये तक बाजार में उपलब्ध है। पन्नीवाली लाइटदार पतंग आकर्षण का केंद्र है। पन्नी में स्पाइडरमैन, बाहुबली और बेटी-बचाओ बेटी-पढ़ाओ का संदेश देती मोदी के चित्र वाली पतंग भी उपलब्ध हैं। अभी-अभी इस्राइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू और उनकी पत्नी सारा नेतन्याहू के साथ पीएम नरेंद्र मोदी की पतंग उड़ाने वाली तस्वीर वायरल होने के बाद सोशल मीडिया यूजर्स ने जमकर मजे लिए।

कई यूजर्स ने केंद्र सरकार पर सिर्फ पतंग उड़ाने का भी आरोप लगाया है। हिमाचल प्रदेश में पहली बार आज पतंग उत्सव का आयोजन है। यह उत्सव मंडी शहर के ऐतिहासिक पड्डल मैदान में आयोजित हो रहा है। बसंत पंचमी का पर्व हर्षोल्लास से मनाने के लिए इस बार युवाओं में काफी उत्साह नजर आ रहा है। दुकानों पर पतंग खरीदने वालों की संख्या में भी इस बार काफी बढ़ोतरी हुई है। हालांकि ड्रेगन डोर पर सख्ती के चलते बाजारों में कई तरह की डोरें पहुंच चुकी हैं। उम्मीद है कि आज पतंगबाजों की संख्या बाजारों में और बढ़ सकती है।

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