टाटा ट्रस्ट्स की अखिल भारतीय पहल, पराग बच्चों के साहित्य में अक्षमता पर ध्यान केंद्रित कर रही है ताकि इसे और अधिक समावेशी और प्रासंगिक बनाया जा सके जिसके परिणामस्वरूप बच्चे अपने आसपास मौजूद विकलांग बच्चों को अछूत न समझें...
किट्टू खो गया है! वह एक अनजान जगह पर राजमार्ग के किनारे बने एक ढाबे के पास अपने परिवार से बिछड़ गया है. तभी एक आइस्क्रीम वाला आकर उसे बचाता है और अचानक किट्टू का अबतक बुरा और भयावह दिन बिल्कुल बदल जाता है. किसने इस बात की कल्पना होगी कि एक बिल्कुल अनजान और वीरान सी जगह पर एक स्केट पार्क भी हो सकता है?
उस आइसक्रीम वाले की बेटी भी स्केटबोर्डिंग को लेकर बिल्कुल पागल है और अब किट्टू भी उसपर अपने हाथ आजमाना चाहता है. लेकिन क्या एक ऐसा बच्चा जिसका एक पैर न हो और जो बैसाखियों के सहारे से चल पाता हो स्केटबोर्ड चलाना सीख सकता है? क्या किट्टू बिल्कुल पागल है जो वह ऐसा करने की कोशिश कर रहा है?
मान्या अपने स्कूल के नाटक में शेर खान बनना चाहती है. जंगल बुक उसकी पसंदीदा किताब है और उसे उसकी सभी पंक्तियां अच्छे से याद हैं. उसे इस बात का पूरा भरोसा है कि वह शेरखान का किरदार शानदार तरीके से निभाएगी. लेकिन हर कोई ऐसा नहीं सोचता. उसका यहपाठी रजत हमेशा उसकी हकलाने की आदत का मजाक उड़ाता है. उसकी अंग्रेजी की शिक्षिका को लगता है कि उसे स्टेज पर भेजना जोखिम भरा निर्णय होगा और उसकी प्रधानाध्यापिका भी इस बात से सहमत है.
मान्या जितनी अधिक उत्सुक होती है उसका हकलाना उतना ही और अधिक बढ़ जाता है. क्या मान्या अपनी ख्वाबों की भूमिका से हाथ धो बैठेगी? क्या वह अपने भीतर के डर से पार पाकर दहाड़ना सीख सकती है?
किट्टू और मान्या जैसे किरदार - युवा दिव्यांग बच्चे - ऐसे बच्चों की स्कूली किताबों की कहानियों का हिस्सा बने हैं जहां पर स्कूली बच्चों को ‘‘पहले बच्चा’’ माना जाता है - जिनके जीवन बचपन की सभी उम्मीदें, डर, शरारत और मजे को स्थान मिलता है.
टाटा ट्रस्ट द्वारा वित्तपोषित पराग ने पिछले एक दशक से भी अधिक के समय में बाल साहित्य के प्रकाशकों, सलाहकारों, विशेषज्ञों, संगठनों इत्यादि के सहयोग से पांच से 16 आयुवर्ग के बच्चों के लिये 420 नई कहानियों के विकास में योगदान दिया है।
दरअसल किट्टू की शारीरिक अक्षमता और मान्या के हकलाने जैसी समस्याओं को हमारे परिवेश में अत्याधिक चुनौतीपूर्ण नहीं माना जाता और इसी के चलते ऐसे पात्रों को नायक का दर्जा भी नहीं दिया जाता है. ये कहानियां इन बच्चों के दैनिक जीवन का हिस्सा बन चुकी संघर्षों, सपनों और आकांक्षाओं को प्रतिबिंबित करती हैं. ये कहानियां, जो विभिन्न अक्षमताओं से जूझ रहे बच्चों के किरादारों को एक बेहद संवेदनशील लेकिन बिल्कुल अलग तरीके से प्रस्तुत करती हैं असल में टाटा ट्रस्ट के पराग इनीशिएटिव के तहत बच्चों के समक्ष पेश की जा रही हैं.
एक साथ जोड़ने की पहल
वर्ष 2005-06 में स्थापित पराग, लेखकों, चित्रकारों और स्थानीय प्रकाशकों को बच्चों के बीच पढ़ने की आदत को बढ़ावा देने के लिये विभिन्न भाषाओं में बाल साहित्य लाने के उद्देश्य से एकसाथ जोड़ता है. टाटा ट्रस्ट द्वारा वित्तपोषित पराग ने पिछले एक दशक से भी अधिक के समय में बाल साहित्य के प्रकाशकों, सलाहकारों, विशेषज्ञों, संगठनों इत्यादि के सहयोग से पांच से 16 आयुवर्ग के बच्चों के लिये 420 नई कहानियों के विकास में योगदान दिया है. यह किताबें स्कूलों, सामाजिक संगठनों, पुस्तकालयों और घरों के जरिये अबतक 20 मिलियन से अधिक पाठकों तक पहुंच चुकी हैं.
पराग इनीशिएटिव की प्रमुख स्वाहा साहू कहती हैं, ‘‘भारत में प्रतिवर्ष बच्चों के लिये सैंकड़ों की संख्या में नई किताबें छपती हैं लेकिन उनमें से सिर्फ चुनिंदा में ही आपको अक्षम किरदार पढ़ने को मिलेंगे. ऐसी पुस्तकें बहुत कम हैं जिनमें विकलांगता या अक्षमता को वास्तविक रूप से चित्रित किया जाता हो. किसी भी प्रकार की विकलांगता से ग्रसित बच्चे अक्सर कहानियों में संबंधित पात्रों की गैरमौजूदगी के साथ ही बड़े होते हैं. इसके अलावा उनके सहयोगी भी अक्षम बच्चों के जीवन के अनुभवों की सीमित समझ ही रखते हैं.’’
इसी अंतर को पाटने के उद्देश्य से पराग ने चेन्नई के विद्यासागर स्कूल और डकबिल बुक्स के साथ मिलकर अपनी वार्षिक पहल ‘‘चिल्ड्रन फस्र्टः राईटिंग काॅन्टेस्ट’’ के माध्यम से लेखकों को विकलांग बच्चों से जुड़ी कहानियों को संवेदनशील तरीके से लिखने के लिये आमंत्रित किया. 2016 में प्रारंभ किये गए इस आयोजन का मूल उद्देश्य जमीनी स्तर पर जागरुकता पैदा करना और समावेश को बढ़ाना है.
दूरियों को मिटाना
अक्सर ऐसा होता है कि एक व्यस्क के रूप में हम भी किसी भी प्रकार की विकलांगता से जूझ रहे किसी व्यक्ति से बात करने में हिचकिचाते हैं. हमें उनका स्वागत कैसे करना चाहिये? क्या हमें उनकी अक्षमता के बारे में बात करनी चाहिये? उनसे पूछना चाहिये कि वे इसका सामना कैसे कर रहे हैं? उनके सामने कैसी समस्याएं आती हैं? मैं अपकी मदद कैसे कर सकता/सकती हूं? और ऐसा संवेदनशीलता की कमी के चलते नहीं है बल्कि इसके पीछे मुख्य कारण यह है कि विशेष आवश्यकता वाले लोगों के साथ हमारा संपर्क और बातचीत न के बराबर है. हम उनके बारे में स्कूलों में शायद ही कुछ सीखते हों. अक्सर होता यह है कि अक्षमता से जूझ रहे बच्चों को अलग करके विशेष स्कूलों में भेजा जाता है.
नील और व्हील्स की लेखिका लावण्या कार्तिक का मानना है कि ‘‘ऐ समाज के रूप में हम उन लोगों को बिल्कुल अलग-थलग करने का प्रयास करत हैं जो हमें ‘भिन्न’ लगते हैं. जबकि होना यह चाहिये कि हम उनके लिये एक ऐसा वातावरण तैयार करें जहां सभी क्षमताओं वाले बच्चे आपस में बातचीत कर सकें, और एक सचेत और स्वतंत्र जीवन जीना सीख सकें.’’
वे आगे कहती हैं, ‘‘हममें से अधिकांश किसी अक्षमता से पीड़ित व्यक्ति के साथ बातचीत करे बिना या फिर कुछ ऐसी सेवाओं या अवसरों पर सवाल उठाए बिना ही बड़े हुए हैं क्योंकि हमें ऐसा लगता है कि हम बहुमत से आते हैं. इसके बदले में हम एक ऐसी व्यवस्था को जीवित रखने में मदद करते हैं जो विभिन्न अक्षताओं से जूझ रहे लोगों को समावेषित करने के बजाय उन्हें प्रथक करती है.’’
उनकी नील आॅन व्हील्स एक ऐसे युवा की कहानी है जिसकी व्हीलचेयर खुद को ड्रेगनों और राक्षसों से लड़ने वाली और रात में डरावने प्राणियों को भगाने वाली बन जाती है.
बीते एक दशक में बच्चों को निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा (आरटीई) अधिनियम, 2009 और सुगम्य भारत अभियान बड़ा गेम चेंजर साबित हुआ है. स्कूलों और कॉलेजों तक बिना किसी बैरियर पहुंच की अनिवार्य आवश्यकता के साथ, रैंप, रेल, लिफ्ट, व्हीलचेयर उपयोगकर्ताओं के लिए शौचालयों का अनुकूलन, ब्रेल संकेत, श्रवण संकेत, और स्पर्शशील फर्श की सुविधा के चलते अब अक्षमता वाले बच्चों के पास नियमित कॉलेजों और स्कूलों में अध्ययन के अनुकूल अवसर हैं.
बच्चों के साथ जुड़ना
समावेशी भारत के इस दृष्टिकोंण को आगे ले जाते हुए, पराग को उम्मीद है कि वह बच्चों के साहित्य के माध्यम से समावेशन का संदेश फैलाने में कामयाब होगा. असल में साहित्य एक ऐसा माध्यम है जिसकी कहानियों के जरिये बच्चे खुद को औरों से अलग पाते हैं.
पराग द्वारा प्रकाशित किताबों में लावझया कार्तिक की तस्वीर पुस्तक नील आॅन व्हील्स; शिखांदिन की सचित्र पुस्तक विभूति कैट; हर्षिका उदासी की किट्टूज़ अेरिबल हाॅरिबल, नो गुड, वैरी मैड डे; और श्रुती रवा की किताब मान्या लन्र्स टू रोर शामिल हैं. इनके जरिये वे अक्षमताओं से जूझ रहे बच्चों की व्यक्तिगत वास्तविकताओं से जुड़ने का प्रयास करते हैं. यह कहानियां पाठकों को दूसरों के बारे में समझने और सहानुभूति लाने में भी मददगार साबित होती हैं और समय के साथ परिप्रेक्ष्य में भी बड़ा बदलाव लाती हैं.
मान्या लन्र्स टू रोर की लेखिका कहती हैं, ‘‘मुझे इस बात का पूरा विश्वास है कि जिन बच्चों ने बड़े होते समय चुनौतियों का सामना किया है दूसरे बच्चे भी उनकी कहानियों से रूबरू हों ताकि उन्हें समझा, स्वीकारा जा सके और ‘‘अलग’’ न माना जाए.
वर्ष 2006-2007 में एक स्वतंत्र ब्रिटिश साक्षरता चैरिटी, बुक ट्रस्ट ने एक अध्ययन के जरिये बच्चों से बात कर किताबों में विकलांगता को प्रदर्शित किये जाने के बारे में जाना. विकलांग और सक्षम, दोनों ही तरह के बच्चों का सबसे पहले यह कहना था कि किताबों में विकलांगता की पर्याप्त तस्वीरें नहीं हैं. इसके अलावा कई बच्चों ने बड़े होते समय में सकारात्मक छवियों की अनुपस्थिति में अलगाव की स्थितियों के अनुभव को भी साझा किया.
विभूति कैट की लेखिका शिखांदिन कहती हैं, ‘‘मेरा ऐसा मानना है कि हमें ऐसी कहानियों की बहुत अधिक आवश्यकता है - और बच्चों और बड़ों, दोनों के लिये. अक्षमता से जूझ रहे बच्चों और बड़ों की ‘‘विशेष जरूरतों’’ से जुड़ी कहानियां हर किसी को उनके साथ जुड़ने में और चीजों को उनके नजरिये से समझने में भी मददगार साबित होंगी. इसके बाद जब हम सामने आते हैं, तो हम उनके प्रति सहानुभूति न जताते हुए समृद्ध और संवेदनशील होते हैं.’’
स्वाहा कहती हैं, ‘‘मान्या लन्र्स टू रोर के संबंध में एक लड़की ने लाइब्रेरी सत्र के दौरान काफी बहादुरी दिखाते हुए बताया कि कैसे वह अपने एक शैतान सहपाठी की बातों को दिल पर ले जाती थी. लेकिन अब, जैसे मान्या ने ऐसी बातों को नजरअंदाज करना सीखा और नाटक में प्रदर्शन करने की हिम्मत दिखाई, वह भी ऐसा ही करती है.’’
अब जब चिल्ड्रन फस्र्ट इनीशिएटिव ने विकलांगता और अक्षमता से जुड़ी कहानियों को तैयार करना और ‘‘भिन्नताओं’’ को सामान्य करना प्रारंभ कर दिया है, यंग इंडिया अब समलैंगिकता और शायद युद्ध से जुड़ी कहानियों करी प्रतीक्षा में है.
पराग आठ राज्यों - राजस्थान, झारखंड, उत्तराखंड, ओडिशा, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, गुजरात और कर्नाटक में सामुदायिक और सरकारी पुस्तकालयों की सहायता से 40,000 बच्चों तक पहुंचता है.