इकबाल चेयर के पहले ग़ज़लगो मुज़फ्फ़र हनफ़ी
आधुनिक उर्दू ग़ज़ल के सबसे बड़े शायर मुज़फ्फ़र हनफ़ी...
मुज़फ्फ़र हनफ़ी ने उर्दू ग़ज़ल की नजाकत को ऐसा बांकपन अता किया कि मुन्नी बाई हिजाब और उमराव जान अदा के चंगुल से निकलकर वह रजिया सुल्तान और रानी लक्ष्मीबाई बन गई। सुरीले तरन्नुम के सहारे अय्याश राजाओं, नवाबों को खुश करने की बजाए वह इंसानी घुटन के सीने छलनी करने लगी। अपने लहजे और तेवर में सबसे अलग मुज़फ्फ़र हनफ़ी को नई बात पुराने अंदाज में और पुरानी बात नए असलूब में कहने का हुनर खूब आता है। लिखने का भी जुनून ऐसा कि अपने उस्ताद पर ही पंद्रह किताबें लिख डालीं। ग़ज़लों के दरबार के वह ऐसे अमीर हैं, जिनकी मौजूदगी पूरी-की-पूरी महफ़िल को ही बाशऊर बना देती है...
आजाद खयाल मुज़फ्फ़र हनफी उर्दू-हिंदी के ही विद्वान नहीं हैं, उनके द्वारा एक दर्जन से अधिक अनूदित किताबें भी साहित्य अकादमी और नेशनल बुक ट्रस्ट से प्रकाशित हो चुकी हैं।
जिस हनफी ने अपने लेखन की शुरुआत अंग्रेजी के जासूसी उपन्यासों का उर्दू में अनुवाद से की थी, आज अब तक उन पर दर्जनों किताबें लिखी जा चुकी हैं। उन पर फोकस तमाम पत्रिकाओं के विशेषांक निकल चुके हैं...
मुज़फ्फ़र हनफ़ी ने उर्दू ग़ज़ल की नजाकत को ऐसा बांकपन अता किया कि मुन्नी बाई हिजाब और उमराव जान अदा के चंगुल से निकलकर वह रजिया सुल्तान और रानी लक्ष्मीबाई बन गई। सुरीले तरन्नुम के सहारे अय्याश राजाओं, नवाबों को खुश करने की बजाए वह इंसानी घुटन के सीने छलनी करने लगी। अपने लहजे और तेवर में सबसे अलग मुज़फ्फ़र हनफ़ी को नई बात पुराने अंदाज में और पुरानी बात नए असलूब में कहने का हुनर खूब आता है। लिखने का भी जुनून ऐसा कि अपने उस्ताद पर ही पंद्रह किताबें लिख डालीं। ग़ज़लों के दरबार के वह ऐसे अमीर हैं, जिनकी मौजूदगी पूरी-की-पूरी महफ़िल को ही बाशऊर बना देती है।
आधुनिक उर्दू ग़ज़ल की बुलंदियों पर खड़े उस्ताद शायर मुज़फ्फ़र हनफ़ी का जीवन बड़े संघर्षों के साथ कदम-ब-कदम आगे बढ़ा है। का असली नाम अबुल मुज़फ्फ़र है। दसवीं क्लास पास करने के बाद हालात ने उन्हें कुछ इस कदर जकड़ लिया था कि पढ़ाई के साथ-साथ वह नौकरी की भी तलाश में निकल पड़े। और एक दिन उनकी कामयाबी को दुनिया ने कुछ इस तरह से देखा कि इकबाल चेयर के पद से रिटायर हुए। जब उन्होंने इकबाल चेयर को पहली बार 1989 में ज्वॉइन किया, 1996 में रिटायर होने के बाद उनके कार्यकाल को पांच साल का और सेवा विस्तार दे दिया गया। उर्दू में सबसे पहले उन पर ही सन 1983 में नागपुर विश्वविद्यालय में शोध कार्य हुआ। अपने उस्ताद शाद आरफ़ी से उन्होंने महज 14 महीने ग़ज़ल पर पत्राचार से इसलाह ली और उनके इंतकाल के बाद 1964 से अब तक उन पर वह 15 किताबें लिख चुके हैं। अब कहते हैं, अभी उस्ताद का एक हक अता नहीं हुआ है।
गोपीचंद नारंग उनको आधुनिक उर्दू ग़ज़ल का सबसे बड़ा शायर कहते हैं। अवार्ड मिलने में उनकी राह में दुश्वारियां भी कुछ कम नहीं रही हैं। जो उन्हें सराहते रहे, वही 1982 में साहित्य अकादमी पुरस्कार और इकबाल सम्मान से उनका नाम कटवाने में छिप-छिपकर कामयाबियों के आड़े भी आते रहे। देश के एक आला ओहदेदार राजनेता ने जब पद्मश्री अवार्ड के लिए उनका नाम आगे बढ़ाना चाहा तो यह कहते हुए उन्होंने मना कर दिया कि अब वक्त निकल चुका, यह तो बहुत पहले होना चाहिए था। अब जाने दीजिए। नहीं चाहिए मुझे। अपनों से जो शोहरत मिल चुकी, वही इफरात है। किसी वक्त में जब ज्ञानपीठ पुरस्कार शहरयार को दिया गया था, उर्दू हलकों में चर्चाएं सरगर्म रहीं कि यह तो मुज़फ्फ़र हनफ़ी का हक मारा गया है। इस पर कई पत्रिकाओं ने अपने सम्पादकीय तक में ऐतराज जताए थे।
आजाद खयाल मुज़फ्फ़र हनफी उर्दू-हिंदी के ही विद्वान नहीं हैं, उनके द्वारा एक दर्जन से अधिक अनूदित किताबें भी साहित्य अकादमी और नेशनल बुक ट्रस्ट से प्रकाशित हो चुकी हैं। मीर तकी मीर, हसद मोहानी, मोहम्मद हुसैन आजाद, शाद आरफ़ी आदि पर उन्होंने विभिन्न मोनोग्राफ भी लिखे हैं। वह सौ से अधिक किताबें और दो हजार के आसपास ग़ज़लें लिख चुके हैं। उनकी शायरी की तेरह किताबें हैं। तीन कहानी संग्रह के अलावा वह तनकीद और रिसर्च पर भी कई किताबें लिख चुके हैं। वह साल में आठ-दस मुशायरे करने के बाद बाकी अपना ज्यादातर वक्त लिखने-पढ़ने में बिताते हैं।
सच बोलने वाले शायर के रूप में लोग मुज़फ्फ़र हनफ़ी की क़दर करते हैं। वह अपने बाकी तौर तरीकों में भी बेलाग इतने हैं कि एक बार जब राज्यपाल का पद संभाल रहे एक जनाब ने उनसे अपने संकलन पर भूमिका लिखवानी चाही, उन्होंने इतना भर लिख दिया - 'न आप राजनेता अच्छे हैं, न शायर।' उर्दू अदब के इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ कि पीएचडी की डिग्री अवार्ड होने के बाद कौंसिल के लिए मुज़फ्फ़र हनफ़ी की रिपोर्ट पर उसे रद्द कर दिया गया था। उन्होंने एक पीएचडी तो यह बताकर रद्द करा दी कि उसे गाइड ने लिखी है। आज वक्त की भी सच्चाई ये है कि मुशायरे के बड़े से बड़े शायर मुज़फ्फ़र हनफ़ी की मौजूदगी में अपनी शायरी करने से डरते हैं।
यह भी गौरतलब होगा कि मुज़फ्फ़र हनफ़ी की जब कलमी लड़ाई एक मैग्जीन में बशीर बद्र के नाम से छपी, फिर तो कई साल तक हंगामा होता रहा। मजरूह सुल्तानपुरी, जुबैर रिजवी, मजहर इमाम जैसे अनेक शायरों को मुज़फ्फ़र हनफ़ी ने उनकी अदबी अहसियत जलसे में और मैग्जीन के मजमून लिखकर बहुत सारे लोगों को नाराज किया। मुज़फ्फ़र हनफ़ी की किताब का नाम 'लाग लपेट' के बगैर ही उनकी सच्चाई और खैर रुआब को दर्शाता है। उन्होंने अपने दोस्त काजी हसन रजा के साथ आधुनिक उर्दू की पहली मैग्जीन 'नए चिराग़' को सन् 1995 में खंडवा से प्रकाशित किया था, जो अठारह अंक छपने के बाद बंद हो गई। इस पत्रिका में उस दौर के बड़े लेखक फ़िराक़ गोरख़पुरी, शाद आरफ़ी, अब्दुल हमीद आदम, राही मासूम रज़ा, खलील उर रहमान आज़मी, एहतेशाम हुसैन, क़ाज़ी अब्दुल वदूद, नयाज़ फतहपुरी, निसार अहमद फ़ारूक़ी आदि प्रकाशित हुआ करते थे। सन् 1967 में प्रकाशित उनकी ग़ज़लों की किताब 'पानी की जुबां' हिंदुस्तान में आधुनिक शायरी की पहली किताब मानी जाती है।
मूलतः खंडवा (म.प्र.) के रहने वाले मुज़फ्फ़र हनफ़ी ने 1960 में अपने करियर की शुरुआत भोपाल से की और चौदह वर्षों तक मध्य प्रदेश के फॉरेस्ट डिपार्टमेंट में रहे। वहीं उनकी मुलाक़ात दुष्यंत कुमार से हुई तो उनके साथ दुष्यंत कुमार भी फज़ल ताबिश की गोष्ठियों में जाने लगे। वह और फज़ल ताबिश ही दुष्यंत को ग़ज़ल की तरफ लाए। सन् 1974 में वह दिल्ली, नेशनल कौंसिल ऑफ़ रिसर्च एंड ट्रैनिंग में आ गए। उसके बाद दो साल तक जामिया मिलिया यूनिवर्सिटी में उर्दू के रीडर रहे।
जिस हनफी ने अपने लेखन के शुरुआत अंग्रेजी के जासूसी उपन्यासों का उर्दू में अनुवाद से की थी, आज अब तक उन पर दर्जनों किताबें लिखी जा चुकी हैं। उन पर फोकस तमाम पत्रिकाओं के विशेषांक निकल चुके हैं। उन्हें कैफी अवॉर्ड, इंटरनेशनल पोएट्री अवॉर्ड, इफ्तिखार-ए-मीर सम्मान, परवेज शाहिदी अवॉर्ड, गालिब अवॉर्ड, सिराज मीर खां सहर अवॉर्ड आदि सहित कुल 45 से ज़्यादा पुरस्कार मिल चुके हैं। दस से ज़्यादा इंटरनेशनल बिओग्राफिकल्स डिक्शनरीज में उनका हवाला शामिल है। मूलतः खंडवा (म.प्र.) के रहने वाले मुज़फ्फ़र हनफ़ी ने 1960 में अपने करियर की शुरुआत भोपाल से की और चौदह वर्षों तक मध्य प्रदेश के फॉरेस्ट डिपार्टमेंट में रहे। वहीं उनकी मुलाक़ात दुष्यंत कुमार से हुई तो उनके साथ दुष्यंत कुमार भी फज़ल ताबिश की गोष्ठियों में जाने लगे। वह और फज़ल ताबिश ही दुष्यंत को ग़ज़ल की तरफ लाए। सन् 1974 में वह दिल्ली, नेशनल कौंसिल ऑफ़ रिसर्च एंड ट्रैनिंग में आ गए। उसके बाद दो साल तक जामिया मिलिया यूनिवर्सिटी में उर्दू के रीडर रहे। वहां से कोलकाता यूनिवर्सिटी में इक़बाल चेयर के प्रोफेसर होकर चले गए। यह पद दरअसल फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के लिए स्थापित किया गया था लेकिन वह बेरुत चले गए। उसके बाद इक़बाल चेयर बारह साल तक खाली रही। उसके बाद 1989 में पहली बार कोलकाता यूनिवर्सिटी के पहले इक़बाल चेयर प्रोफेसर के रूप में मुज़फ्फर हनफी का उस पद पर चयन हुआ।
मुज़फ्फ़र हनफ़ी कहते हैं कि उर्दू ग़ज़ल के सिर पर औरतों से गुफ्तगू करने का दोष नहीं मढ़ा जाना चाहिए। दुनिया का कोई भी मौजूं सब्जेक्ट ग़ज़ल का शेर हो सकता है। नौजवानों को उर्दू ग़ज़ल का आशिकाना मिजाज अच्छा लगता है लेकिन उन ग़ज़लों में भला गालिब जैसी बात कहां होती है! उनका मानना है कि ज्यादा लिखना बड़ी बात नहीं होती है, बल्कि अच्छा लिखना और खूब लिखना बड़ी बात होती है। ज्यादा लिखना मगर घटिया, तो वैसा लिखा किस काम का, उसे तो कोई याद नहीं रखता है। कोई बेशक कम लिखे मगर लाजवाब लिखे। मजरूह सुल्तानपुरी ने महज चार दर्जन के लगभग ग़ज़लें लिखीं, लाजवाब। आज उन्हें दुनिया जानती है।
अफसानानिगारों में कुछ ऐसा ही हुनर मंटो में दिखता है। उनके पसंदीदा शायर गालिब, मीर तकी मीर और शाद आरफी के अलावा उनके चहेते अफसानानिगार सआदत हसन मंटो हैं। उन्होंने मंटो को अपने अब्बा से चोरी-चोरी पढ़ा। जब कभी अब्बा देख लेते, कान पकड़कर उमेठ दिया करते थे। अपने उस्ताद शाद आरफी के बारे में वह बताते हैं कि वो बड़े खुद्दार शायर थे। उन्होंने अपनी पूरी जिंदगी गरीबी में काट दी। उस समय जब रामपुर के नवाब के खिलाफ कोई बोलने तक की हिम्मत नहीं करता था, वह नवाब के खिलाफ लगातार बेलौस लिखते रहे।
मशहूर शायर मुनव्वर राना लिखते हैं कि जिस शख्स को पढ़कर मैंने शेर कहना शुरू किया, दुनिया उसे मुज़फ़्फ़र हनफ़ी के नाम से जानती है। उनकी हर ग़ज़ल अनोखी उपज और हुनरमंदी का सुबूत देती है। उनका हर शेर विश्वास और जिंदगी करने की अलामत बन जाता है। रेशमी अहसास के दरीचे से झांकती हुई ग़ज़ल का वो चेहरा, जिस पर शायर अपनी आंखों की कहानी और दिल की धड़कनें अंकित करके मुस्कराता हुआ कोई दूसरी तस्वीर बनाने चल देता है। उर्दू जुबान को जोश मलिहाबादी के घर की लौंडी भी कहा जाता रहा है, यही दासी जब डॉक्टर मुज़फ़्फ़र हनफ़ी की ग़ज़ल के महल में आई तो इस महल के तमाम गलियारों में चिंतन और अभिव्यक्ति के चिराग जगमगाने लगे। उन्होंने उर्दू ग़ज़ल की नजाकत को ऐसा बांकपन अता किया है कि वह मुन्नी बाई हिजाब और उमराव जान अदा के चंगुल से निकलकर रजिया सुल्तान और रानी लक्ष्मीबाई बन गई। सुरीले तरन्नुम के सहारे अय्याश राजाओं और नवाबों को खुश करने की जगह यह ग़ज़ल ऐसा तीर बन गई कि जिसने समाज और हालात की घुटन के सीने छलनी कर दिए।
अगर मजमुई तौर पर देखा जाए तो डॉक्टर मुज़फ़्फ़र हनफ़ी निहायत शरीफ आदमी हैं। तबीयत में इंकिसार इतना कि फकीरों और दुर्वेशों के यहां भी कम दिखाई देता है। सादा लौह इतने कि दिलदार नगर के एक गांव के मैदान में उतरने से भी नहीं शर्माते। दोस्त नवाज इतने कि राशन की दुकानवाला भी उनसे हमदर्दी का इजहार करता है बल्कि कभी-कभी तो इजहारे अफसोस भी करता है। उनसे मेरे ताल्लुकात तकरीबन पच्चीस बरस पुराने हैं। यूं देखिए तो हिंदुस्तान की बड़ी से बड़ी सीमेंट फैक्ट्री भी पच्चीस बरस से ज्यादा की गारंटी नहीं लेती है और अगर इत्तिफाक से कोई फैक्ट्री गारंटी ले भी लेती है तो नतीजे के तौर पर उसकी मदद से बनाए हुए पुल टूट जाते हैं, मकानात बैठ जाते हैं और पानी की टंकियां शहर के तमाम गिद्धों और चीलों की चौपाल में तब्दील हो चुकी होती हैं लेकिन डॉक्टर साहब के कलाम की पकड़ इतनी मजबूत है कि मुझ जैसे पहलवान किस्म के शायर को आज तक हिलने भी नहीं दिया। उनकी एक खुरदुरी ग़ज़ल के मिजाज देखिए-
इस खुरदुरी ग़ज़ल को न यूँ मुँह बना के देख।
किस हाल में लिखी है मिरे पास आ के देख।
वो दिन हवा हुए कि बिछाते थे जान ओ दिल,
अब एक बार और हमें मुस्कुरा के देख।
पर्दा पड़ा हुआ है तबस्सुम के राज़ पर,
फूलों से ओस आँख से आँसू गिरा के देख।
ये दोपहर भी आई है परछाइयों के साथ,
वैसे नज़र न आएँ तो मशअल जला के देख।
गुलचीं ने जब तमाम शगूफ़ों को चुन लिया,
काँटे पुकार उठे कि हमें आज़मा के देख।
तू मेरा हम-सफ़र है तो फिर मेरे साथ चल,
है राहज़न तो नक़्श-ए-क़दम रहनुमा के देख।
अपनी नज़र से देख बरहना हयात को,
आँखों से ये किताब की ऐनक हटा के देख।
अज़-राह-ए-एहतियात सफ़र को न ख़त्म कर,
ये फूल हैं कि आग क़दम तो जमा के देख।
ठप्पा लगा हुआ है 'मुज़फ़्फ़र' के नाम का,
उसका कोई भी शेर कहीं से उठा के देख।
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