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लिटरेचर के हाइवे पर कविता की पगडंडियां

लिटरेचर के हाइवे पर कविता की पगडंडियां

Wednesday December 20, 2017 , 8 min Read

ऐसी कविताओं को पढ़ते समय पाठक को अलग तरह के शाब्दिक अनुभवों से गुजरना होता है। यह गुजरना आसान नहीं होता कभी भी। क्योंकि कवि उन संदर्भों से हमारा साक्षात्कार कराता है, जिनके पलों से उससे पहले हमारा कोई वास्ता नहीं पड़ा होता है। 

साहित्यकार भवानी, राम सेंगर और बुद्धिनाथ मिश्र

साहित्यकार भवानी, राम सेंगर और बुद्धिनाथ मिश्र


 कवि के पास शब्द होते हैं और उनको चित्रित करने की, अभिव्यक्ति योग्यता होती है, इसलिए वह उन दृश्यों को, वस्तुस्थितियों को हमारे सामने अलग तरह से अपने खाटी अनुभवों के साथ साकार कर देता है। 

कविता का पथ जितना सुखद-सुहाना होता है उतना ही ऊबड़-खाबड़ और कंटकाकीर्ण भी। जाने माने हिंदी जनगीतकार राम सेंगर कविता के कथ्य को एक एकदम भिन्न सिरे से पकड़ते हैं। 

कुछ कविताएं ऐसी होती हैं, जो सीधे कवि, कविता से, कविता के जटिल-जरूरी शब्दों और संदर्भों से बोलती बतियाती हैं। ऐसी बोलती कविताएं हमे साहित्य के मर्म के दूसरे पहलू से जब साक्षात्कार कराती हैं, पाठक सोचता है, ऐसा तो हम भी सोच रहे थे, एक कवि के बारे में, एक कविता के बारे में, अथवा अपने आसपास, अपने समय के बारे में।

घाना के कवि क्वामे दावेस की एक कविता- 'कविता लिखने से पहले'.....'बेशर्म हवाओं से निकली आवाज़ की तरह, कविता के बाहर आने के पहले, सोना होता है कवि को एक करवट साल भर, खानी होती है सूखी रोटी, पीना पड़ता है हिसाब से दिया गया पानी। कवि को डालनी होती है घास के ऊपर रेत, बनानी होती है अपने शहर की दीवारें, घेरना होता है दीवारों को बंदूक की गोली से, बंद करनी होती है शहर में संगीत की धुन। कवि की जीभ हो जाती है भारी, रस्सियां बंध जाती हैं बदन में, अंग प्रत्यंग हो जाते हैं शिथिल। उलझता है वह खुदा से– पूछता है–क्या है कविता का अर्थ। कविता लिखने से पहले, कवि को करना पड़ता है यह सब, ताकि सर्दियों के मौसम के बीच, निकले जब वह सैर पर, न हो चेहरे पर सलवटें, आँखों में हो एक लाचार बेबसी–जिसे लोग कहते हैं शांति, अपनी गठरी में लिए बौराए हुए थोड़े से शब्द, हरे रंग और उन आवाजों के बारे में, जो बुदबुदाती हैं सपने में वारांगनाएं।'

ऐसी कविताओं को पढ़ते समय पाठक को अलग तरह के शाब्दिक अनुभवों से गुजरना होता है। यह गुजरना आसान नहीं होता कभी भी। क्योंकि कवि उन संदर्भों से हमारा साक्षात्कार कराता है, जिनके पलों से उससे पहले हमारा कोई वास्ता नहीं पड़ा होता है। ऐसी कविताओं को पढ़ते हुए लगता है कि हम स्वयं को, स्वयं के अनुभवों को, स्वयं के आसपास को पढ़ रहे होते हैं शिद्दत और पूरी ईमानदारी से। एक कवि-साहित्यकार की तरह, आम पाठक की तरह नहीं। एक ऐसी ही कविता से हमारी सुखद मुलाकात कराते हैं हिंदी के प्रसिद्ध कवि भवानी प्रसाद मिश्र। वह अपनी इस 'गीत-फरोश' शीर्षक रचना में कवि के उस सच और साहित्य के उस दुख से सुपरिचित कराते हैं, जो आधुनिक रचनाकार जगत भोग रहा होता है-

जी हाँ हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ,

मैं तरह-तरह के गीत बेचता हूँ,

मैं किसिम-किसिम के गीत बेचता हूँ!

जी, माल देखिए, दाम बताऊँगा,

बेकाम नहीं हैं, काम बताऊँगा,

कुछ गीत लिखे हैं मस्ती में मैंने,

कुछ गीत लिखे हैं पस्ती में मैंने,

यह गीत सख्त सर-दर्द भुलाएगा,

यह गीत पिया को पास बुलाएगा!

जी, पहले कुछ दिन शर्म लगी मुझको,

पर बाद-बाद में अक्ल जगी मुझको,

जी, लोगों ने तो बेच दिए ईमान,

जी, आप न हों सुन कर ज़्यादा हैरान-

मैं सोच समझ कर आखिर

अपने गीत बेचता हूँ,

जी हाँ हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ,

मैं तरह-तरह के गीत बेचता हूँ,

मैं किसिम-किसिम के गीत बेचता हूँ!

यह गीत सुबह का है, गा कर देखें,

यह गीत गज़ब का है, ढा कर देखें,

यह गीत ज़रा सूने में लिक्खा था,

यह गीत वहाँ पूने में लिक्खा था,

यह गीत पहाड़ी पर चढ़ जाता है,

यह गीत बढ़ाए से बढ़ जाता है!

यह गीत भूख और प्यास भगाता है,

जी, यह मसान में भूख जगाता है,

यह गीत भुवाली की है हवा हुजूर,

यह गीत तपेदिक की है दवा है हुजूर,

जी, और गीत भी हैं दिखलाता हूँ,

जी, सुनना चाहें आप तो गाता हूँ।

जी, छंद और बेछंद पसंद करें,

जी अमर गीत और वे जो तुरत मरें!

ना, बुरा मानने की इसमें बात,

मैं ले आता हूँ, कलम और दवात,

इनमें से भाये नहीं, नये लिख दूँ,

जी, नए चाहिए नहीं, गए लिख दूँ!

मैं नए, पुराने सभी तरह के

गीत बेचता हूँ,

जी हाँ, हुजूर मैं गीत बेचता हूँ

मैं तरह-तरह के गीत बेचता हूँ।

मैं किसिम-किसिम के गीत बेचता हूँ!

जी, गीत जनम का लिखूँ मरण का लिखूँ,

जी, गीत जीत का लिखूँ, शरण का लिखूँ,

यह गीत रेशमी है, यह खादी का,

यह गीत पित्त का है, यह बादी का!

कुछ और डिजाइन भी हैं, यह इलमी,

यह लीजे चलती चीज़, नई फ़िल्मी,

यह सोच-सोच कर मर जाने का गीत,

यह दुकान से घर जाने का गीत!

जी नहीं, दिल्लगी की इसमें क्या बात,

मैं लिखता ही तो रहता हूँ दिन-रात,

तो तरह-तरह के बन जाते हैं गीत,

जी, रूठ-रूठ कर मन जाते हैं गीत!

जी, बहुत ढेर लग गया, हटाता हूँ,

गाहक की मर्ज़ी, अच्छा जाता हूँ,

या भीतर जाकर पूछ आइए आप,

है गीत बेचना वैसे बिलकुल पाप,

क्या करूँ मगर लाचार

हार कर गीत बेचता हूँ!

जी हाँ, हुजूर मैं गीत बेचता हूँ,

मैं किसिम-किसिम के गीत बेचता हूँ!

कवि समाज के जीवन में भी तरह-तरह की विसंगतियां, ऊटपटांग हालात और दृश्य आते-जाते रहते हैं। कवि के पास शब्द होते हैं और उनको चित्रित करने की, अभिव्यक्ति योग्यता होती है, इसलिए वह उन दृश्यों को, वस्तुस्थितियों को हमारे सामने अलग तरह से अपने खाटी अनुभवों के साथ साकार कर देता है। हिंदी के वरिष्ठ कवि हैं गिरिजाकुमार माथुर। वह भाषा के महत्तम को अपनी इस रचना का विषय बनाते हैं, स्वर वही होता है, जो आम कविताओं से हटकर अलग अर्थ लिए हुए-सा। उनकी कविता है- 'हिंदी जन की बोली है'.....

एक डोर में सबको जो है बाँधती वह हिंदी है,

हर भाषा को सगी बहन जो मानती वह हिंदी है।

भरी-पूरी हों सभी बोलियाँ यही कामना हिंदी है,

गहरी हो पहचान आपसी यही साधना हिंदी है,

सौत विदेशी रहे न रानी यही भावना हिंदी है।

तत्सम, तद्भव, देश विदेशी सब रंगों को अपनाती,

जैसे आप बोलना चाहें वही मधुर, वह मन भाती,

नए अर्थ के रूप धारती हर प्रदेश की माटी पर,

'खाली-पीली-बोम-मारती' बंबई की चौपाटी पर,

चौरंगी से चली नवेली प्रीति-पियासी हिंदी है,

बहुत-बहुत तुम हमको लगती 'भालो-बाशी', हिंदी है।

उच्च वर्ग की प्रिय अंग्रेज़ी हिंदी जन की बोली है,

वर्ग-भेद को ख़त्म करेगी हिंदी वह हमजोली है,

सागर में मिलती धाराएँ हिंदी सबकी संगम है,

शब्द, नाद, लिपि से भी आगे एक भरोसा अनुपम है,

गंगा कावेरी की धारा साथ मिलाती हिंदी है,

पूरब-पश्चिम/ कमल-पंखुरी सेतु बनाती हिंदी है।

भाषा के महत्तम से जुड़े विषय पर जब इस तरह की कविता हिंदी के लिए लिखी जाती है तो संभव है, गंगा-जमुनी जुबान उर्दू को भी स्वर जरूर मिले, और वह कवि इकबल अशअर के शब्दों में इस तरह मिलता है उनकी 'उर्दू है मेरा नाम' कविता में-

उर्दू है मेरा नाम मैं खुसरो की पहेली।

मैं मीर की हमराज हूँ, ग़ालिब की सहेली।

दक्कन की वली ने मुझे गोदी में खिलाया।

सौदा के क़सीदो ने मेरा हुस्न बढ़ाया।

है मीर की अज़मत कि मुझे चलना सिखाया।

मैं दाग़ के आंगन में खिली बन के चमेली।

ग़ालिब ने बुलंदी का सफर मुझको सिखाया।

हाली ने मुरव्वत का सबक़ याद दिलाया।

इक़बाल ने आइना-ए-हक़ मुझको दिखाया।

मोमिन ने सजाई मेरी ख्वाबो की हवेली।

है ज़ौक़ की अजमत कि दिए मुझको सहारे।

चकबस्त की उल्फत ने मेरे ख़्वाब संवारे।

फानी ने सजाये मेरी पलकों पे सितारे।

अकबर ने रचाई मेरी बेरंग हथेली।

क्यों मुझको बनाते हो तास्सुब का निशाना।

मैंने तो कभी खुद को मुसलमाँ नही माना।

देखा था कभी मैंने खुशियों का ज़माना।

अपने ही वतन में हूँ आज अकेली।

कविता का पथ जितना सुखद-सुहाना होता है उतना ही ऊबड़-खाबड़ और कंटकाकीर्ण भी। जाने माने हिंदी जनगीतकार राम सेंगर कविता के कथ्य को एक एकदम भिन्न सिरे से पकड़ते हैं। विषय होता है कविता-अकविता, गीत-नवगीत के भीतर का द्वंद्व, दोराहे-चौराहे। वह अपने शब्दों में न तो कविता के भीतर की खींचतान को बख्शते हैं, न ही कवियों की नई पीढ़ी में व्याप्त आंतरिक उठा-पटक को, वह लिखते हैं..........

कविता को लेकर,जितना जो भी कहा गया,

सत-असत नितर कर व्याख्याओं का आया।

कविकर्म और आलोचक की रुचि-अभिरुचि का

व्यवहार-गणित पर कोई समझ न पाया।

'कविता क्या है' पर कहा शुक्ल जी ने जो-जो,

उन कसौटियों पर खरा उतरने वाले।

सब देख लिए पहचान लिए जनमानस ने

खोजी परम्परा के अवतार निराले।

विस्फोट लयात्मक संवेदन का सुना नहीं,

खंडन-मंडन में साठ साल हैं बीते।

विकसित धारा को ख़ारिज़ कर इतिहास रचा

सब काग ले उड़े सुविधा श्रेय सुभीते।

जनमानस में कितना स्वीकृत है गद्यकाव्य

विद्वतमंचों के शोभापुरुषों बोलो।

मानक निर्धारण की वह क्या है रीति-नीति,

कविता की सारी जन्मपत्रियां खोलो।

कम्बल लपेट कर साँस गीत की मत घोटो,

व्यभिचार कभी क्या धर्मनिष्ठ है होता।

कहनी-अनकहनी छल का एल पुलिंदा है,

अपने प्रमाद में रहो लगाते गोता।

बौद्धिक, त्रिकालदर्शी पंडित होता होगा,

काव्यानुभूति को कवि से अधिक न जाने।

जो उसे समझने प्रतिमानों के जाल बुने,

जाने-अनजाने काव्यकर्म पर छाने।

गतिरोध बिछा कर मूल्यबोध संवेदन का,

कोने में धरदी लयपरम्परा सारी।

वह गीत न था, तुम मरे स्वयंभू नामवरो

छत्रप बनकर कविता का इच्छाधारी।

अब देखिए, जब कविता बोलती है तो उसके स्वर कई तरह से मुखर होते हैं, उसके विषय कई-कई भिन्न संदर्भों को रूपायित-व्याख्यायित करते चलते हैं। मीडिया हमारे समय का सबसे ताकतवर तंत्र है, वैसे भी वह चौथा स्तंभ माना जाता है। यह चौथा स्तंभ आज कैसा है, इस पर अपने शब्दों में प्रकाश डालते हैं वरिष्ठ गीतकार बुद्धिनाथ मिश्र.......

अपराधों के ज़िला बुलेटिन हुए सभी अख़बार।

सत्यकथाएँ पढ़ते-सुनते देश हुआ बीमार।

पत्रकार की क़लमें अब फ़ौलादी कहाँ रहीं,

अलख जगानेवाली आज मुनादी कहाँ रही,

मात कर रहे टीवी चैनल अब मछली बाज़ार।

फ़िल्मों से, किरकिट से, नेताओं से हैं आबाद,

ताँगेवाले लिख लेते हैं अब इनके संवाद,

सच से क्या ये अन्धे कर पाएँगे आँखें चार?

मिशन नहीं, गन्दा पेशा यह करता मालामाल,

झटके से गुज़री लड़की को फिर-फिर करें हलाल,

सौ-सौ अपराधों पर भारी इनका अत्याचार।

त्याग-तपस्या करने पर गुमनामी पाओगे,

एक करो अपराध सुर्खियों में छा जाओगे,

सूनापन कट जाएगा, बंगला होगा गुलजार।

पैसे की, सत्ता की जो दीवानी पीढ़ी है,

उसे पता है, कहाँ लगी संसद की सीढ़ी है,

और अपाहिज जनता उसको मान रही अवतार।

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