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डॉ. एस. फारूख कामयाब उद्यमी ही नहीं, गजलगो भी

डॉ. एस. फारूख कामयाब उद्यमी ही नहीं, गजलगो भी

Thursday November 02, 2017 , 6 min Read

देश के जाने-माने उद्योगपति एवं विश्व प्रसिद्ध हिमालया ड्रग कंपनी के डायरेक्टर डॉ. एस. फारुख कंपनी की शीर्ष जिम्मेदारी संभालते हुए भी साहित्य की ओर रुझान रखते हैं। वह कवियों, शायरों में खासे लोकप्रिय भी हैं।

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वह अपने उद्यम में ही नहीं, सामाजिक-साहित्यिक सरोकारों और कई भाषाओं में अच्छी दखल रखते हैं। डॉ एस फारूख अपनी जिंदगी के कई अकथ पन्ने पलटते हुए कहते हैं कि उर्दू हमने बाजाब्ता पढ़ी नहीं। स्कूली तालीम नहीं ली। कुरान शरीफ पढ़ी।

डॉ एस फारूख इंग्लिश स्कूल में पढ़े, साइंस के स्ट्यूडेंट रहे। पर हमारी वालिदा मरहूम सैयदा नूरजहां मादरे जुबान में रिसाले सुनाया करती थीं। अरबी और फारसी के कई वाकयात उन्हें याद रहते थे।

देश के जाने-माने उद्योगपति एवं विश्व प्रसिद्ध हिमालया ड्रग कंपनी के डायरेक्टर डॉ. एस. फारुख कंपनी की शीर्ष जिम्मेदारी संभालते हुए भी साहित्य की ओर रुझान रखते हैं। वह कवियों, शायरों में खासे लोकप्रिय भी हैं। वह अपने उद्यम में ही नहीं, सामाजिक-साहित्यिक सरोकारों और कई भाषाओं में अच्छी दखल रखते हैं। उनके ठिकाने पर आए दिन ऐसे समारोह होते रहते हैं। ज्यादातर में वह खुद भी शिरकत करते हैं।

डॉ एस फारूख अपनी जिंदगी के कई अकथ पन्ने पलटते हुए कहते हैं कि उर्दू हमने बाजाब्ता पढ़ी नहीं। स्कूली तालीम नहीं ली। कुरान शरीफ पढ़ी। इंग्लिश स्कूल में पढ़े, साइंस के स्ट्यूडेंट रहे। पर हमारी वालिदा मरहूम सैयदा नूरजहां मादरे जुबान में रिसाले सुनाया करती थीं। अरबी और फारसी के कई वाकयात उन्हें याद रहते थे। वो बचपन में मुझे फारसी का एक किस्सा सुनाया करती थीं। फारसी जुबान का एक आदमी हिंदुस्तान आया तो एक दुकान पर उसने मठरी बनते देखा। पूछा- 'ई चिस्त'? दुकानदार ने जवाब दिया- 'पिट्ठी पिस्त'। फिर उसने पूछा- बाज बीगो? दुकानदार बोला- पैसे की दो। यानी दोनो एक-दूसरे की जुबान न जानते हुए भी अपनी-अपनी भाषा में भी सवाल-जवाब किए जा रहे थे। दोनो के दोनो अपनी-अपनी जुबान में आमादा, इससे कोई मतलब नहीं कि उनकी जुबान एक-दूसरे कुछ पल्ले पड़ भी रही या नहीं।

तो वालिदा से ऐसे किस्सों, कहानियों, लोकोक्तियों, छुटपुट बातों ने अवचेतन में फारसी भाषा का आग्रहण, संपोषण किया। यह सब भाषा की स्कूली तालीम से ज्यादा असरदार रहा। दिल्ली में मैंने तरजुमे में 'कुरान शरीफ' पढ़ना शुरू किया था। और इसी तरह रफ्ता-रफ्ता फारसी वालो से ताल्लुकात भी होते गए और जुबान में फारसी उतरती गई।

एक बार 'इरान कल्चरल हाउस' में फारसी की एक किताब का इजरा था। मंच के मेहमानों में मैं भी शुमार था। मंच पर पाकिस्तान का पहला कौमी तराना लिखने वाले जगन्नाथ आजाद, जामिया मिलिया यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर जैसी हस्तियां मौजूद थीं। फारसी में बोलना था, और ऐसे विद्वानों के बीच। क्या बोलता। मैंने तो बस वालिदा की जुबानी पाठशाला में जो पढ़ा था, सो पढ़ा था। मेरे बोलने की बारी आई। एक तरकीब सूझी। किया क्या कि, फारसी के जो भी मकाले जुबान पर आते गए, बेलौस धड़ाधड़ बोलता चला गया। फारसी के चंद जुमले फर्राटे से।

और अपनी चेयर पर आ बैठा। इसके बाद तो देर तक मंच पर हंसी के फव्वारे फूटते रहे। हंसते-हंसते विद्वानों ने पेट पकड़ लिए। सभी फारसीदां हैरत में थे कि मैं फारसी न जानते हुए भी किस तरह ऐसा कर गया। जगन्नाथ आजाद ने कहा भी कि फारसी जानते हुए भी हम इतना बेधड़क नहीं, लेकिन तुम तो कितनी खूबसूरती से फारसी के लफ्ज बोल गए।

उस मशहूर शख्सियत जगन्नाथ आजाद को आजकल के लोग कम जानते हैं। धर्मनिरपेक्षता का वह भी एक खूबसूरत, अजब संयोग रहा था कि हिंदुस्तान का पहला कौमी तराना मुस्लिम शायर अल्लामा मोहम्मद इकबाल ने लिखा - 'सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा', और बंटवारे के बाद वो पाकिस्तान चले गए, जबकि पाकिस्तान का पहला कौमी तराना हिन्दू शायर जगन्नाथ आजाद ने लिखा - 'ऐ सरजमीं-ए-पाक जर्रे तेरे हैं आज सितारों से ताबनाक', और वो हिंदुस्तान आ गए। ये दीगर बात है कि वह तराना महज 18 महीने ही पाकिस्तान में गूंजा। उस जमाने में जगन्नाथ आजाद लाहौर में रहा करते थे। बाद में वह भारत आकर 1977 से 1980 तक जम्मू यूनिवर्सिटी में उर्दू के प्रोफेसर रहे। पाकिस्तान का दूसरा कौमी तराना हफीज जालंधरी ने लिखा था।

किसी भी जुबान को संजीदगी से सीखने के लिए तलफ्फुज का सही होना बहुत जरूरी है वरना हालत इस शेर जैसी हो जाती है -

तलफ्फुज की खराबी, 'जमाने' को 'जमाना' कह रहा था ।

पिता आशिक 'फसाना' को 'फंसाना' कह रहा था ।

फारसी की तरह मैंने पंजाबी की भी कोई तालीम नहीं ली थी। चूंकि एक डॉक्टर प्रीतम कौर के यहां से मेरे बड़े घरेलू ताल्लुकात रहे। एक वालिदा की तरह उन्होंने मुझे मोहब्बत से नवाजा तो उनके घर में उनके बच्चों की बीच पंजाबी सुन-सुनकर मैं पंजाबी भी लिखने, पढ़ने, बोलने लगा। आजकल लोग अपनी मादरे जुबान को अहमियत नहीं देते हैं, जबकि हर भाषा की तालीम इंसान को ज्यादा सलीकेदार बनाती है।

एक बार गुरुनानक कॉलेज, देहरादून में पंजाबी जुबान पर तकरीर के लिए कहा गया। मैं उस समारोह में मंच से 45 मिनट तक खालिस पंजाबी बोलता रहा। इसके बाद सदारत कर रहे जनाब ने प्रोग्राम में मौजूद लोगों से पूछा कि यहां कितने लोग ऐसे हैं, जो अपने बच्चों को घरों पर गुटका साहिब पढ़वाते हैं, हाथ उठाएं। गिने-चुने लोगों के हाथ उठे। इसके बाद मंच के महोदय ने कहा कि मेरे एक मित्र मुसलमान हैं, उनके यहां मौलाना कुरान शरीफ पढ़ाने आते हैं मगर आप लोग तो अपने बच्चों तक को गुटका साहिब नहीं पढ़ाना चाहते हैं।

चूंकि मेरा ताल्लुक अपने से ज्यादा उम्र के साहित्यिकारों के साथ रहा है तो मुझे उन्हें सुनने का ज्यादा से ज्यादा मौका मिला। मशहूर शायर शमीम जयपुरी साहेब ने जिंदगी के आखिरी वक्त मेरे घर पर ही गुजारे। उनके कई एक गाने फिल्मों में बहुत मकबूल हुए थे, मसलन, 'मुझको इस रात की तन्हाई में आवाज न दो', ....'अकेले हैं, चले आओ, कहां हो' आदि। इस तरह के उनके कई एक गाने आज भी लोगों की जुबान पर हैं। मगर शमीम साहेब कहते थे कि एक शायर की पहचान उसके लिखे फिल्मी गानों से नहीं, बल्कि उसकी अदबी शायरी से होती है। ऐसे कई एक वाकयात हैं, जिन्हें एक साथ बताना मुमकिन नहीं।

फिलहाल, इस शेर के साथ मैं अपनी बात खत्म करता हूं -

सिर्फ चेहरे की उदासी से भर आए आंसू,

दिल का आलम तो अभी आपने देखा ही नहीं।

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