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लावारिस और गरीब बच्चों को 'मानव' बनाने के लिए बनाया ‘प्रेरणा परिवार बाल आश्रम’

लावारिस और गरीब बच्चों को 'मानव' बनाने के लिए बनाया ‘प्रेरणा परिवार बाल आश्रम’

Sunday November 06, 2016 , 6 min Read

‘‘मैं अकेला ही चला था जानिबे मंजिल मगर, लोग मिलते गए कारवां बढ़ता गया।’’

राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली से सटे गाजियाबाद में लावारिस और बेसहारा बच्चों के लिये आश्रय स्थल संचालित करने वाले तरुण गुप्ता के जीवन पर ये पंक्तियां बिल्कुल सटीक बैठती हैं। वर्ष 2006 में अपने बेटे के जन्म के बाद तोहफे के रूप में मिले सामान को गरीब बच्चों के बीच बांटने से शुरू हुआ उनका यह अभियान समय के साथ वृहद स्वरूप लेता गया और कई लोग इस सफर में उनके साथी बने। इसी की परिणति है लावारिस और बेसहारा बच्चों के लिये संचालित हो रहा ‘प्रेरणा सेवा संस्थान’ और झुग्गियों इत्यादि में रहने वाले गरीब बच्चों के लिये संचालित हो रहा एक डे केयर सेंटर।

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समय के साथ कब तरुण गुप्ता अपने सेवा भाव के कारण आचार्य तरुण ‘मानव’ बन गए उन्हें पता ही नहीं चला। गुमशुदा बच्चों को तलाशने के लिये गाजियाबाद पुलिस द्वारा चलाए गए अभियान ‘आॅपरेशन स्माइल’ में इनके सक्रिय सहयोग ने इस अभियान की सफलता में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। सेल्स और मार्केंटिंग में स्नातकोत्तर तरुण वर्ष 2006 तक कई बड़े संस्थानों को कर्मचारी उपलब्ध करवाने वाली एक मैनपावर कंसल्टेंसी फर्म का संचालन कर रहे थे। इसी दौरान इनके घर पर एक पुत्र ने जन्म लिया और इसके बाद उनका जीवन ही बदल गया और उन्होंने अपना जीवन दूसरों की सेवा को समर्पित कर दिया।

प्रारंभिक दौर के बारे में बात करते हुए तरुण बताते हैं, ‘‘बेटे के जन्म के समय हमारे घर में नवजात से संबंधित सामान का ढेर लग गया और मैंने इस सामान को अपने कार्यालय के आसपास के इलाकों में रहने वाले झुग्गी वालों को बांटना प्रारंभ कर दिया। कुछ दिनों बाद मेरे आसपास के लोगों ने भी इसी प्रकार से अपने घर के पुराने कपड़े इत्यादि इन गरीब बच्चों को देने प्रारंभ किये और समय के साथ मेरी रुचि इस काम में बढ़तीे गई।’’

कुछ वर्षों तक लोगों की इस प्रकार सहायता करने के दौरान इनका सामना झुग्गियों में रहने वाले बच्चों के जीवन की कड़वी सच्चाई से हुआ जहां उन्होंने उनके जीवन की बदहाली और दयनीय हालत देखी। इसके बाद इन्होंने बच्चों के लिये काम करने वाले नोबेल पुरस्कार प्राप्त कैलाश सत्यार्थी की संस्था बचपन बचाओ आंदोलन के साथ संपर्क साधा और ‘चालल्ड राइट एडवोकेसी’ का काम प्रारंभ किया। तरुण बताते हैं, ‘‘उस समय हमनें बचपन बचाओ आंदोलन के साथ मिलकर गरीब और लावारिस बच्चों से संबंधित सरकारी योजनाओं को जानने और समझने पर अपना ध्यान केंद्रित किया। हमनें विभिन्न सरकारी विभागों द्वारा संचालित हो रही योजनाओं की जानकारी ली और इस दौरान पाया कि अधिकतर योजनाएं सही मायनों में जरूरतमंदों तक पहुंच ही नहीं रही हैं। हमनें लगातार संबंधित विभागों और मंत्रालयों से संपर्क करना जारी रखा और बाल अधिकारों के उल्लंघन से संबंधित मामलों को एनसीपीसीआर और एनएचआरसी के सामने उठाना जारी रखा।’’

कुछ समय तक इन बच्चों के अधिकारों के लिये लड़ने के बाद इन्हें समझ में आया कि देश में लगातार गायब हो रहे बच्चों की जानकारी उपलब्ध करवाने वाला कोई एक मंच नहीं है। तरुण कहते हैं, ‘‘हमारे देश में प्रतिवर्ष हजारों बच्चे गायब होते हैं और उस समय तक कहीं कोई केंद्रीयकृत डाटा मौजूद नहीं था। इसी के मद्देनजर मैंने ‘मिसिंग चिंल्ड्रन आॅफ गाजियाबाद’ का प्रकाशन प्रारंभ किया जिसमें प्रतिवर्ष गाजियाबाद से गुमशुदा हो रहे बच्चों का पूरा डाटा मौजूद होता था। मैंने वर्ष 2012 तक इसका प्रकाशन किया और इसी 2012 में लावारिस बच्चों को आश्रय उपलब्ध करवाने के उद्देश्य से ज्युवेनाइल जस्टिस (जेजे) एक्ट के तहत एक बाल आश्रम का पंजीकरण करवाया जो गाजियाबाद का पहला आश्रम था।’’

इसके अलावा इन्होंने भीख मांगने वाले और सड़कों पर कूड़ा इत्यादि इकट्ठा करने वाले बच्चों को श्क्षिित करने के लिये एक डे केयर सेंटर का संचालन प्रारंभ किया जो विवेकानंद नगर इलाके में संचालित हो रहा है। उनके इस सेंटर में वर्तमान में 45 बच्चे पंजीकृत हैं और यहां पर इन बच्चों की पढ़ाई के अलावा उनके लिये प्राथमिक उपचार, मौसम के अनुसार जरूरत के कपड़े, डेंटल और आंखों के चेकअप इत्यादि की व्यवस्था की जाती है।

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फिलहाल इनका ‘प्रेरणा परिवार बाल आश्रम’ गाजियाबाद के कविनगर क्षेत्र में एक किराये के मकान में संचालित हो रहा है जिसमें 26 लावारिस और बेसहारा बच्चे रह रहे हैं और शिक्षा-दीक्षा प्राप्त कर रहे हैं। तरुण बताते हैं, ‘‘शुरू में हमारे सामने कई तरह की दिक्कतों से हुआ। सबसे बड़ी दिक्कत आश्रम को स्थापित करने के लिये स्थान और उसके संचालन के लिये निधि या फंड का प्रबंध करना था। हमारी संस्था एक ऐसी संस्था है जो अब भी बिना किसी सरकारी सहायता के सिर्फ दान के सहारे चल रही है और फिलहाल हमारे साथ रह रहे 18 बच्चे एक स्थानीय प्राईवेट स्कूल में पढ़ने जाते हैं। इन सभी बच्चों की फीस समय पर दी जाती है। हमारा प्रयास है कि हम इन बेसहारा बच्चों को अच्छे से अच्छी सुविधाएं प्रदान करें ताकि ये बच्चे आने वाले समय में देश के जिम्मेदार नागरिक बनकर अपना जीवन गुजार सकें।’’

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तरुण बताते हैं कि कई बार उनके लिये इस आश्रम को संचालित करने के लिये व्यवस्था करना काफी मुश्किल हो जाता है। चूंकि उनका आश्रम पूरी तरह से लोगों से मिलने वाले दान इत्यादि पर निर्भर है और अब समय के साथ लोग इनके सहयोग के लिये अपने आप ही आगे आ रहे हैं। लोगों के सहयोग से अब ये जल्द ही राष्ट्रीय राजमार्ग 24 पर अपनी जगह खरीदकर एक आश्रम तैयार करने वाले हैं। तरुण बताते हैं, ‘‘हमनें फिलहाल 45 लाख रुपये में अपनी 200 गज जगह खरीदी है जहां हम बेहतरीन सुविधाओं वाला बाल आश्रम तैयार करना चाहते हैं। इस जगह को खरीदने के लिये मैंने अपनी दुकानें भी बेच दीं। जल्द ही हम इस आश्रम का निर्माण कार्य प्रारंभ कर देंगे और इस पूरे काम पर करीब 2.5 करोड़ रुपये खर्च होने का अनुमान है।’’

नोबेल पुरस्कार विजेता और बचपन बचाओ आंदोलन के प्रणेता कैलाश सत्यार्थी को अपना आदर्श मानने वाले तरुण लोगों को योग इत्यादि करने के लिये भी जागरुक करते हैं और इसीलिये लोग अब उन्हें आचार्य कहने लगे हैं। इसके अलावा तरुण कहते हैं कि उन्हें जात-पात में कोई विश्वास नहीं है और मानवता ही उनके लिये सबकुछ है। ऐसे में अब लोग उन्हें आचार्य तरुण मानव के नाम से जानने लगे हैं।

इस आश्रम का संचालन करने के अलावा आचार्य तरुण सड़कों पर भीख मांगने वाले, कूड़ा जमा करने वाले और लावारिय घूमने वाले बच्चों के पुनर्वास इत्यादि के लिये भी सक्रिय रहते हैं। साथ ही वे आसपास के इलाकों में बाल अधिकारों के प्रति लोगों को भी जागरुक करते हैं। इसके अलावा तरुण घरों में नौकरों की तरह काम करने वाले बच्चों को भी काम से मुक्ति दिलवाने में एक सक्रिय भूमिका निभाते हैं और सूचना मिलने पर स्थानीय पुलिस के सहयोग से बच्चों को मुक्त करवाते हैं। इस प्रकार से ये अबतक कई बच्चों को भी मुक्त करवाकर मुख्यधारा का जीवन जीने में मदद कर चुके हैं।

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अंत में अपनी आचार्य तरुण मानव अपनी बात को विराम मशहूर शायर निदा फाजली के एक शेर के साथ करते हैं जो जीवन जीने के उनके फलसफे के साथ बिल्कुल सटीक बैठता हैः

‘‘घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूँ कर लें,

किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए।’’