वो मशहूर लेखक जिसने अश्लीलता के आरोप का दिया मुंहतोड़ जवाब
मंटो की कहानियाँ अपने अंत के साथ खत्म नहीं होतीं, बल्कि अपने पीछे मन को झकझोर देने वाली सच्चाई छोड़ जाती हैं। जब भगत सिंह को फाँसी दे दी गई तो मंटो ने अपने कमरे में पिता की फ़ोटो के नीचे भगत सिंह की मूर्ति रखी और कमरे के बाहर एक तख़्ती पर लिखा- "लाल कमरा"...
'अगर आपको मेरी कहानियां अश्लील या गंदी लगती हैं, तो जिस समाज में आप रह रहे हैं, वह अश्लील और गंदा है। मेरी कहानियां तो सच दर्शाती हैं:' सआदत हसन मंटो
टोबा टेक सिंह, हलाल और झटका, तमाशा, ठंडा गोश्त जैसी बहुचर्चित कहानियों के मशहूर लेखक सआदत हसन मंटो की आज (18 जनवरी) पुण्यतिथि है। मंटो अपने दोस्तों के हद दर्जे के दोस्त और दुश्मनों के दुश्मन भी थे। संस्मरणों की जान थे वह तभी तो कितने सारे संस्मरण लिखे मिल जायेंगे उन पर, अमृता प्रीतम के 'रसीदी टिकट' से झांक–झांक जाते हैं वह। कृष्णा सोबती के 'हम हशमत' में तो पूरे के पूरे मंटो मिल जाएंगे।
उर्दू अफ़सानानिगार मुशर्रफ़ आलम जौकी के शब्दों में दुनिया अब धीरे-धीरे मंटो को समझ रही है और उन पर भारत और पाकिस्तान में बहुत काम हो रहा है लेकिन ऐसा लगता है कि मंटो को पूरी तरह समझ पाने के लिये सौ साल भी कम हैं। शुरुआत में मंटो को दंगों, फ़िरकावाराना वारदात और वेश्याओं पर कहानियाँ लिखने वाला सामान्य सा साहित्यकार माना गया था लेकिन दरअसल मंटो की कहानियाँ अपने अंत के साथ खत्म नहीं होती हैं। वे अपने पीछे इंसान को झकझोर देने वाली सच्चाइयाँ छोड़ जाती हैं।
उनकी सपाट बयानी वाली कहानियाँ फ़िक्र के आसमान को छू लेती हैं। उनको लोग लेखक कम, क्रांतिकारी ज्यादा मानते हैं। वह अन्य लेखकों की तरह सिर्फ लेखक की उपाधि से इसलिए भी नहीं नवाजे गये क्योंकि अपनी लेखनी से समाज को आईना दिखाते रहते थे। वह इस बात की भी परवाह नहीं करते थे कि उनकी सच्चाई को समाज पचा पाएगा या नहीं। यही वजह है कि उनके ऊपर अश्लील और भद्दा लेखक होने के तोहमत लगते रहे।
भारतीय-साहित्य में नारीवाद की शुरुआत करने वाले लेखकों में मंटो भी शामिल हैं। उन्होंने अपनी कहानियों के जरिए महिलाओं और उनसे जुड़े तमाम पहलुओं को बेबाकी से सामने रखा, जो हमेशा से हमारे सभ्य-समाज की बुनियाद में छिपी घिनौनी सच्चाई रही है। मंटो की कहानियों में तीन तरह के स्त्री-केंद्रित विषय हुआ करते थे- लड़की, गृहिणी और वेश्या। मंटो की लिखी कहानी ‘शरीफन’, ‘ठंडा गोश्त’ और ‘खोल दो’ वस्तुत: बंटवारे व हिंदू-मुसलिम फसादों में महिलाओं की उस स्थिति को दर्शाती है, जब सभ्य समाज की कथित इंसानियत, हैवानियत और वहशीपन में तब्दील होने लगती है। मंटो ने ‘शरीफन’ और ‘सकीना’ नाम की पात्रों के जरिए उस तस्वीर को सामने रखा, जहां समाज के लिए ये दो लड़कियां नहीं, बल्कि मांस का वो लोथड़ा हैं, जिनसे शरीफजादे अपने हवस को ठंडा करते हैं। कहानी ‘धुआं’ के जरिए मंटो ने एक ऐसी सशक्त लड़की की दास्तां बयां की, जो अपने आपको किसी भी मामले में अपने भाई से कम नहीं मानती।
‘औलाद’ मंटो की एक ऐसी कहानी है, जिसमें उन्होंने समाज की बनाई स्त्री का बखूबी चित्रण किया है। यह मुसलिम विवाहिता की ऐसी कहानी है, जो बच्चे की चाहत में पागल हो जाती है और इस चाहत का खाका भी खुद उसकी मां ने खींचा होता है। इस कहानी के जरिए मंटो ने अपने बेबाक अंदाज में महिलाओं के मन में समाज की जमाई उन तमाम परतों को उजागर किया, जो हमारे समाज में महिला को महिला साबित करने के लिए ज़रूरी रहा है। अगर वह इनके किसी भी एक पहलू पर खरी नहीं उतरतीं, तो यह सभ्य समाज उनके अस्तित्व को अस्वीकार कर देता है। मंटो की महिला केंद्रित कहानियों में तीसरा प्रमुख वर्ग है- वेश्या।
उन्होंने अपनी कहानियों में वेश्याओं की संवेदनाओं को जिस कदर उकेरा है, वैसा उनसे पहले किसी भी लेखक ने नहीं किया। कहानी ‘काली सलवार’ की सुलताना, वेश्याओं की तमाम हसरतों को हमारे सामने रखती है, जिससे यह साबित होता है कि उसका अस्तित्व सिर्फ लोगों की जिस्मानी जरूरतों को पूरा करना वाली एक वस्तु की तरह ही नहीं है, बल्कि उसके भी अरमान एक आम लड़की की तरह होते हैं। मंटो ने अपनी कहानियों में महिलाओं को इंसान के तौर पर स्वीकार किया। उन्होंने महिला-संबंधित सभी सामाजिक पहलुओं को हमारे सामने रखा, जिसे सदियों से समाज ने सभ्यता और इज्जत की र्इंटों में चुनवा रखा था।
शायद उनकी यही हिमाकत समाज को नागवार गुजरी और उसने मंटो की कहानियों के महिला पात्रों को अश्लील करार दिया। मंटो की इन सभी कहानियों को जब पाठक पढ़ता है, तो वह वही तिलमिलाहट महसूस करता है, जिसे लिखने से पहले और लिखते वक्त लेखक को बैचेन किया। मंटो की कहानी में अनुभव की सच्चाई के साथ-साथ जुल्म का अहसास भी है। स्त्री पात्रों का मार्मिक चित्रण पाठकों को अंदर तक हिला कर रख देता है। समाज की गंदगी और उसका घिनौना बर्ताव पाठक के सामने साकार हो उठता है, जिसे वह कभी नहीं भुला पाता। मंटो की कहानियों में स्त्री पात्र अश्लील नहीं हैं, अश्लीलता और निर्ममता तो समाज की दिखती है। मंटो ने उस दौर के समाज पर जो व्यंग्य और कटाक्ष किया है, वह अगर आज भी चुभता है, तो जाहिर है कि वह मानसिक विकृति अब भी खत्म नहीं हुई, जिसके खिलाफ अंतिम सांस तक वे लड़ते रहे।
मंटो ने अपने 19 साल के साहित्यिक जीवन में 230 कहानियाँ, 67 रेडियो नाटक, 22 शब्द चित्र और 70 लेख लिखे। तमाम ज़िल्लतें और परेशानियाँ उठाने के बाद 18 जनवरी, 1955 में उन्होंने दुनिया को अलविदा कह दिया था। मंटो का जन्म 11 मई 1912 को पुश्तैनी बैरिस्टरों के परिवार में हुआ था। उनके पिता ग़ुलाम हसन नामी बैरिस्टर और सेशन जज थे। उनकी माता का नाम सरदार बेगम था, और मंटो उन्हें बीबीजान कहते थे। 1932 में मंटो के पिता का देहांत हो गया। भगत सिंह को उससे पहले फाँसी दी जा चुकी थी। मंटो ने अपने कमरे में पिता के फ़ोटो के नीचे भगत सिंह की मूर्ति रखी और कमरे के बाहर एक तख़्ती पर लिखा- लाल कमरा।
लोग मंटों को अक्सर अश्लील और भद्दा लेखक कह कर तंज कसा करते थे लेकिन उन्होंने अपनी कलम से उनके चेहरों का रंग कागज पर उतारा, जो कागज की अश्लीलता तो देख लेते थे लेकिन अपने भीतर की नहीं। मंटो अपनी कहानियों पर लगने वाले अश्लीलता के इल्ज़ाम पर कहते थे- 'अगर आपको मेरी कहानियां अश्लील या गंदी लगती हैं, तो जिस समाज में आप रह रहे हैं, वह अश्लील और गंदा है। मेरी कहानियां तो सच दर्शाती हैं।'
मंटो बचपन से ही बहुत होशियार और शरारती थे। मंटो ने एंट्रेंस इम्तहान दो बार फेल होने के बाद पास किया। इसकी एक वजह उनका उर्दू में कमज़ोर होना था। मंटो का विवाह सफ़िया से हुआ था। जिनसे मंटो की तीन पुत्री हुई। उन्हीं दिनों के आसपास मंटो ने तीन-चार दोस्तों के साथ मिलकर एक ड्रामेटिक क्लब खोला था और आग़ा हश्र का एक नाटक प्रस्तुत करने का इरादा किया था। "यह क्लब सिर्फ़ 15-20 दिन रहा था, इसलिए कि मंटो के पिता ने एक दिन धावा बोलकर हारमोनियम और तबले सब तोड़-फोड़ दिए थे और कह दिया था, कि ऐसे वाहियात काम उन्हें बिल्कुल पसंद नहीं।" मंटो ने एंट्रेंस तक की पढ़ाई अमृतसर के मुस्लिम हाईस्कूल में की थी।
1931 में उन्होंने हिंदू सभा कॉलेज में दाख़िला लिया। उन दिनों पूरे देश में और ख़ासतौर पर अमृतसर में आज़ादी का आंदोलन पूरे उभार पर था। जलियाँवाला बाग़ का नरसंहार 1919 में हो चुका था जब मंटो की उम्र कुल सात साल की थी, लेकिन उनके बाल मन पर उसकी गहरी छाप थी। मंटो की कहानियों की बीते दशक में जितनी चर्चा हुई है, उतनी शायद उर्दू और हिन्दी और शायद दुनिया के दूसरी भाषाओं के कहानीकारों की कम ही हुई है। आंतोन चेखव के बाद मंटो ही थे जिन्होंने अपनी कहानियों के दम पर अपनी जगह बना ली।
उन्होंने जीवन में कोई उपन्यास नहीं लिखा। सआदत हसन के क्राँतिकारी दिमाग़ और अतिसंवेदनशील हृदय ने उन्हें मंटो बना दिया और तब जलियाँवाला बाग़ की घटना से निकल कर कहानी 'तमाशा' आई। यह मंटो की पहली कहानी थी। क्रांतिकारी गतिविधियाँ बराबर चल रही थीं और गली-गली में “इंक़लाब ज़िदाबाद” के नारे सुनाई पड़ते थे। दूसरे नौजवानों की तरह मंटो भी चाहता था कि जुलूसों और जलसों में बढ़ चढ़कर हिस्सा ले और नारे लगाए, लेकिन पिता की सख़्ती के सामने वह मन मसोसकर रह जाता। आख़िरकार उनका यह रुझान अदब से मुख़ातिब हो गया। उन्होंने पहली रचना लिखी “तमाशा”, जिसमें जलियाँवाला नरसंहार को एक सात साल के बच्चे की नज़र से देखा गया है।
इसके बाद कुछ और रचनाएँ भी उन्होंने क्रांतिकारी गतिविधियों के असर में लिखी। मंटो की चर्चित कहानियां हैं - टोबा टेक सिंह, खोल दो, घाटे का सौदा, हलाल और झटका, ख़बरदार, करामात, बेख़बरी का फ़ायदा, पेशकश, कम्युनिज़्म, तमाशा, बू, ठंडा गोश्त, काली शलवार आदि। 1948 के बाद मंटो पाकिस्तान चले गए। पाकिस्तान में उनके 14 कहानी संग्रह प्रकाशित हुए जिनमें 161 कहानियाँ संग्रहित हैं। इन कहानियों में सियाह हाशिए, नंगी आवाज़ें, लाइसेंस, खोल दो, टेटवाल का कुत्ता, मम्मी, टोबा टेक सिंह, फुंदने, बिजली पहलवान, बू, ठंडा गोश्त, काली शलवार और हतक जैसी चर्चित कहानियाँ शामिल हैं। जिनमें कहानी बू, काली शलवार, ऊपर-नीचे, दरमियाँ, ठंडा गोश्त, धुआँ पर लंबे मुक़दमे चले। हालाँकि इन मुक़दमों से मंटो मानसिक रूप से परेशान ज़रूर हुए लेकिन उनके तेवर ज्यों के त्यों थे।
मंटो ऐसे कहानी कार और लेखक थे, जिन्हें अपनी लेखनी के कारण जेल जाना पड़ा और कई बार जुर्माने भी भरने पड़े। भारत-पाकिस्तान बंटवारे पर लिखी उनकी कहानियां जितनी शाश्वत लगती हैं, शायद यही वजह है कि वो आज भी युवाओं के बीच उतनी ही शिद्दत से मौजूद हैं। कहते हैं कि लेखनी से मुहब्बत और समाज को आईना दिखाने की चाहत ने ही उनको जेल और पागलखाने पहुंचवा दिया। भारत-पाक बंटवारे पर केंद्रित मंटो की एक लोकप्रिय कहानी है - 'टोबा टेकसिंह', जो इस प्रकार है-
बंटवारे के दो-तीन साल बाद पाकिस्तान और हिंदुस्तान की हुकूमतों को ख्याल आया कि अख्लाकी कैदियों की तरह पागलों का भी तबादला होना चाहिए, यानी जो मुसलमान पागल हिन्दुस्तान के पागलखानों में हैं उन्हें पाकिस्तान पहुंचा दिया जाय और जो हिन्दू और सिख पाकिस्तान के पागलखानों में है उन्हें हिन्दुस्तान के हवाले कर दिया जाय। मालूम नहीं यह बात माकूल थी या गैर-माकूल थी। बहरहाल, दानिशमंदों के फैसले के मुताबिक इधर-उधर ऊँची सतह की कांफ्रेंसें हुई और दिन आखिर एक दिन पागलों के तबादले के लिए मुकर्रर हो गया। अच्छी तरह छान बीन की गयी। वो मुसलमान पागल जिनके लवाहिकीन (सम्बन्धी ) हिन्दुस्तान ही में थे वहीं रहने दिये गये थे।
बाकी जो थे उनको सरहद पर रवाना कर दिया गया। यहां पाकिस्तान में चूंकि करीब-करीब तमाम हिन्दु सिख जा चुके थे इसलिए किसी को रखने-रखाने का सवाल ही न पैदा हुआ। जितने हिन्दू-सिख पागल थे सबके सब पुलिस की हिफाजत में सरहद पर पहुंचा दिये गये। उधर का मालूम नहीं। लेकिन इधर लाहौर के पागलखानों में जब इस तबादले की खबर पहुंची तो बड़ी दिलचस्प चीमेगोइयां होने लगी। एक मुसलमान पागल जो बारह बरस से हर रोज बाकायदगी के साथ जमींदार पढ़ता था, उससे जब उसके एक दोस्त ने पूछा-
- मोल्हीसाब। ये पाकिस्तान क्या होता है ?
तो उसने बड़े गौरो फिक्र के बाद जवाब दिया-
- हिन्दुस्तान में एक ऐसी जगह है जहां उस्तरे बनते हैं।
ये जवाब सुनकर उसका दोस्त मुतमइन हो गया।
इसी तरह एक और सिख पागल ने एक दूसरे सिख पागल से पूछा--
- सरदार जी हमें हिन्दुस्तान क्यों भेजा जा रहा है - हमें तो वहां की बोली नहीं आती।
दूसरा मुस्कराया-
- मुझे तो हिन्दुस्तान की बोली आती है - हिंदुस्तानी बड़े शैतानी आकड़ -आकड़ फिरते हैं।
एक मुसलमान पागल ने नहाते-नहाते 'पाकिस्तान जिन्दाबाद' का नारा इस जोर से बुलन्द किया कि फर्श पर फिसल कर गिरा और बेहोश हो गया।
बाज पागल ऐसे थे जो पागल नहीं थे। उनमें अकसरियत ऐसे कातिलों की थी जिनके रिश्तेदारों ने अफसरों को दे- दिलाकर पागलखाने भिजवा दिया था कि फांसी के फंदे से बच जायें। ये कुछ-कुछ समझते थे कि हिंदुस्तान क्या तकसीम हुआ और यह पाकिस्तान क्या है, लेकिन सही वाकेआत से ये भी बेखबर थे। अखबारों से कुछ पता नहीं चलता था और पहरेदार सिपाही अनपढ़ और जाहिल थे। उनकी गुफ्तगू (बातचीत) से भी वो कोई नतीजा बरआमद नहीं कर सकते थे।
उनको सिर्फ इतना मालूम था कि एक आदमी मुहम्मद अली जिन्ना है, जिसको कायदे आजम कहते हैं। उसने मुसलमानों के लिए एक अलाहेदा मुल्क बनाया है जिसका नाम पाकिस्तान है। यह कहां है ?इसका महल-ए-वकू (स्थल) क्या है इसके मुतअल्लिक वह कुछ नहीं जानते थे। यही वजह है कि पागल खाने में वो सब पागल जिनका दिमाग पूरी तरह माउफ नहीं हुआ था, इस मखमसे में गिरफ्तार थे कि वो पाकिस्तान में हैं या हिन्दुस्तान में। अगर हिन्दुस्तान में हैं तो पाकिस्तान कहां है। अगर वो पाकिस्तान में है तो ये कैसे हो सकता है कि वो कुछ अरसा पहले यहां रहते हुए भी हिन्दुस्तान में थे। एक पागल तो पाकिस्तान और हिन्दुस्तान, और हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के चक्कर में कुछ ऐसा गिरफ्तार हुआ कि और ज्यादा पागल हो गया।
झाडू देते-देते एक दिन दरख्त पर चढ़ गया और टहनी पर बैठ कर दो घंटे मुस्तकिल तकरीर करता रहा, जो पाकिस्तान और हिन्दुस्तान के नाजुक मसअले पर थी। सिपाहियों ने उसे नीचे उतरने को कहा तो वो और ऊपर चढ़ गया। डराया, धमकाया गया तो उसने कहा-
- मैं न हिन्दुस्तान में रहना चाहता हूं न पाकिस्तान में। मैं इस दरख्त पर ही रहूंगा।
एक एम. एससी. पास रेडियो इंजीनियर में, जो मुसलमान था और दूसरे पागलों से बिल्कुल अलग-थलग, बाग की एक खास रविश (क्यारी) पर सारा दिन खामोश टहलता रहता था, यह तब्दीली नमूदार हुई कि उसने तमाम कपड़े उतारकर दफादार के हवाले कर दिये और नंगधंडंग़ सारे बाग में चलना शुरू कर दिया।
यन्यूट के एक मौटे मुसलमान पागल ने, जो मुस्लिम लीग का एक सरगर्म कारकुन था और दिन में पन्द्रह-सोलह मरतबा नहाता था, यकलख्त (एकदम) यह आदत तर्क (छोड़)कर दी। उसका नाम मुहम्मद अली था। चुनांचे उसने एक दिन अपने जिंगले में ऐलान कर दिया कि वह कायदे आजम मोहम्मद अली जिन्ना है। उसकी देखादेखी एक सिख पागल मास्टर तारासिंह बन गया। करीब था कि उस जिंगले में खून-खराबा हो जाय, मगर दोनों को खतरनाग पागल करार देकर अलहदा-अलहदा बन्द कर दिया गया।
लाहौर का एक नौजवान हिन्दू वकील था जो मुहब्बत में मुब्तिला होकर पागल हो गया था। जब उसने सुना कि अमृतसर हिन्दुस्तान में चला गया है तो उसे बहुत दुख हुआ। इसी शहर की एक हिन्दू लड़की से उसे मुहब्बत हो गयी थी। गो उसने इस वकील को ठुकरा दिया था, मगर दीवानगी की हालत में भी वह उसको नहीं भूला था। चुनांचे वह उन तमाम मुस्लिम लीडरों को गालियां देता था, जिन्होंने मिल मिलाकर हिन्दुस्तान के दो टुकड़े कर दिये-- उसकी महबूबा हिंदुस्तानी बन गयी और वह पाकिस्तानी।
जब तबादले की बात शुरू हुई तो वकील को कई पागलों ने समझाया कि वह दिल बुरा न करे,उसको हिन्दुस्तान वापस भेज दिया जायेगा। उस हिन्दुस्तान में जहां उसकी महबूबा रहती है। मगर वह लाहौर छोड़ना नहीं चाहता था-- इस ख्याल से कि अमृतसर में उसकी प्रैक्टिस नहीं चलेगी। यूरोपियन वार्ड में दो एंग्लो-इण्डियन पागल थे। उनको जब मालूम हुआ कि हिन्दुस्तान को आजाद करके अंग्रेज चले गये हैं तो उनको बहुत रंज हुआ। वह छुप-छुप कर इस मसअले पर गुफ्तगू करते रहते कि पागलखने में उनकी हैसियत क्या होगी। यूरापियन वार्ड रहेगा या उड़ जायगा। ब्रेकफास्ट मिलेगा या नहीं। क्या उन्हें डबलरोटी के बजाय ब्लडी इण्डियन चपाती तो जहरमार नहीं करनी पड़ेगी?
एक सिख था जिसको पागलखाने में दाखिल हुए पन्द्रह बरस हो चुके थे। हर वक्त उसकी जबान पर अजीबोगरीब अल्फाज सुनने में आते थे, 'ओपड़ी गुड़गुड़ दी एन्क्स दी बेध्याना विमन्ग दी बाल आफ दी लालटेन।' वो न दिन में सोता था न रात में। पहरेदारों का कहना था कि पन्द्रह बरस के तवील अर्से में एक एक लम्हे के लिए भी नहीं सोया। लेटा भी नहीं था। अलबना किसी दीवार के साथ टेक लगा लेता था।
हर वक्त खड़ा रहने से उसके पांव सूज गये थे। पिंडलियां भी फूल गयीं थीं। मगर इस जिस्मानी तकलीफ के बावजूद वह लेटकर आराम नहीं करता था। हिन्दुस्तान-पाकिस्तान और पागलों के तबादले के मुतअिल्लक जब कभी पागलखाने में गुफ्तगू होती थी तो वह गौर से सुनता था। कोई उससे पूछता कि उसका क्या खयाल है तो बड़ी संजीदगी से जवाब देता, 'ओपड़ी गुड़गुड़ दी एन्क्स दी बेध्याना विमन्ग दी वाल आफ दी पाकिस्तान गवर्नमेंट।'
लेकिन बाद में आफ दी पाकिस्तान गवर्नमेंट की जगह आफ दी टोबा टेकसिंह गवर्नमेंट ने ले ली और उसने दूसरे पागलों से पूछना शुरू किया कि टोबा टेकसिंह कहां है जहां का वो रहने वाला है। लेकिन किसी को भी नहीं मालूम था कि वो पाकिस्तान में है या हिन्दुस्तान में। जो यह बताने की कोशिश करते थे वो खुद इस उलझाव में गिरफ्तार हो जाते थे कि स्याल कोटा पहले हिन्दुस्तान में होता था, पर अब सुना है कि पाकिस्तान में है। क्या पता है कि लाहौर जो अब पाकिस्तान में है कल हिन्दुस्तान में चला जायगा या सारा हिन्दुस्तान हीं पाकिस्तान बन जायेगा। और यह भी कौन सीने पर हाथ रखकर कह सकता था कि हिन्दुस्तान और पाकिस्तान दोनों किसी दिन सिरे से गायब नहीं हो जायेंगे।
उस सिख पागल के केस छिदरे होके बहुत मुख्तसर रह गये थे। चूंकि वह बहुत कम नहाता था इसलिए दाढ़ी और बाल आपस में जम गये थे जिनके बाइस (कारण) उसकी शक्ल बड़ी भयानक हो गयी थी। मगर आदमी बेजरर (अहानिकारक) था। पन्द्रह बरसों में उसने किसी से झगड़ा-फसाद नहीं किया था। पागलखाने के जो पुराने मुलाजिम थे वो उसके मुतअलिक इतना जानते थे कि टोबा टेकसिंह में उसकी कई जमीनें थीं। अच्छा खाता-पीता जमींदार था कि अचानक दिमाग उलट गया। उसके रिश्तेदार लोहे की मोटी-मोटी जंजीरों में उसे बांधकर लाये और पागलखाने में दाखिल करा गये।
महीने में एक बार मुलाकात के लिए ये लोग आते थे और उसकी खैर-खैरियत दरयाफ्त करके चले जाते थे। एक मुप्त तक ये सिलसिला जारी रहा, पर जब पाकिस्तान हिन्दुस्तान की गड़बड़ शुरू हुई तो उनका आना बन्द हो गया। उसका नाम बिशन सिंह था। मगर सब उसे टोबा टेकसिंह कहते थे। उसको ये मालूम नहीं था कि दिन कौन-सा है, महीना कौन-सा है या कितने दिन बीत चुके हैं। लेकिन हर महीने जब उसके अजीज व अकारिब (सम्बन्धी) उससे मिलने के लिए आते तो उसे अपने आप पता चल जाता था। चुनांचे वो दफादार से कहता कि उसकी मुलाकात आ रही है। उस दिन वह अच्छी तरह नहाता, बदन पर खूब साबुन घिसता और सिर में तेल लगाकर कंघा करता।
अपने कपड़े जो वह कभी इस्तेमाल नहीं करता था, निकलवा के पहनता और यूं सज-बन कर मिलने वालों के पास आता। वो उससे कुछ पूछते तो वह खामोश रहता या कभी-कभार 'ओपड़ी गुड़गुड़ दी एन्क्स दी वेध्याना विमन्ग दी वाल आफ दी लालटेन ' कह देता। उसकी एक लड़की थी जो हर महीने एक उंगली बढ़ती-बढ़ती पन्द्रह बरसों में जवान हो गयी थी। बिशन सिंह उसको पहचानता ही नहीं था। वह बच्ची थी जब भी आपने बाप को देखकर रोती थी, जवान हुई तब भी उसकी आंख में आंसू बहते थे।पाकिस्तान और हिन्दुस्तान का किस्सा शुरू हुआ तो उसने दूसरे पागलों से पूछना शुरू किया कि टोबा टेकसिंह कहां है। जब इत्मीनान बख्श (सन्तोषजनक) जवाब न मिला तो उसकी कुरेद दिन-ब- दिन बढ़ती गयी। अब मुलाकात नहीं आती है। पहले तो उसे अपने आप पता चल जाता था कि मिलने वाले आ रहे हैं, पर अब जैसे उसके दिल की आवाज भी बन्द हो गयी थी जो उसे उनकी आमद की खबर दे दिया करती थी।
उसकी बड़ी ख्वाहिश थी कि वो लोग आयें जो उससे हमदर्दी का इजहार करते थे ओर उसके लिए फल, मिठाइयां और कपड़े लाते थे। वो उनसे अगर पूछता कि टोबा टेकसिंह कहां है तो यकीनन वो उसे बता देते कि पाकिस्तान में है या हिन्दुस्तान में, क्योंकि उसका ख्याल था कि वो टोबा टेकसिंह ही से आते हैं जहां उसकी जमीनें हैं। पागलखाने में एक पागल ऐसा भी था जो खुद को खुदा कहता था। उससे जब एक दिन बिशन सिंह ने पूछा कि टोबा टेकसिंह पाकिस्तान में है या हिन्दुस्तान में तो उसने हस्बेआदत (आदत के अनुसार) कहकहा लगाया और कहा--
- वो न पाकिस्तान में है न हिन्दुस्तान में, इसलिए कि हमने अभी तक हुक्म नहीं लगाया।
बिशन सिंह ने इस खुदा से कई मरतबा बड़ी मिन्नत समाजत से कहा कि वो हुक्म दे दे ताकि झंझट खत्म हो, मगर वो बहुत मसरूफ था, इसलिए कि उसे ओर बेशुमार हुक्म देने थे। एक दिन तंग आकर वह उस पर बरस पड़ा, 'ओपड़ी गुड़गुड़ दी एन्क्स दी बेध्याना विमन्ग दी वाल आफ वाहे गुरूजी दा खलसा एन्ड वाहे गुरूजी की फतह। जो बोले सो निहाल सत सिरी अकाल।' उसका शायद यह मतलब था कि तुम मुसलमान के खुदा हो, सिखों के खुदा होते तो जरूर मेरी सुनते। तबादले से कुछ दिन पहले टोबा टेकसिंह का एक मुसलमान दोस्त मुलाकात के लिए आया। पहले वह कभी नहीं आया था। जब बिशन सिंह ने उसे देखा तो एक तरफ हट गया और वापस आने लगा मगर सिपाहियों ने उसे रोका-- -- ये तुमसे मिलने आया है - तुम्हारा दोस्त फजलदीन है।
बिशन सिंह ने फजलदीन को देखा और कुछ बड़बड़ाने लगा। फजलदीन ने आगे बढ़कर उसके कंधे पर हाथ रखा।
- मैं बहुत दिनों से सोच रहा था कि तुमसे मिलूं लेकिन फुर्सत ही न मिली। तुम्हारे सब आदमी खैरियत से चले गये थे मुझसे जितनी मदद हो सकी मैने की। तुम्हारी बेटी रूप कौर...। वह कुछ कहते कहते रूक गया । बिशन सिंह कुछ याद करने लगा --
- बेटी रूप कौर ।
फजलदीन ने रूक कर कहा-
- हां वह भी ठीक ठाक है। उनके साथ ही चली गयी थी।
बिशन सिंह खामोश रहा। फजलदीन ने कहना शुरू किया-
- उन्होंने मुझसे कहा था कि तुम्हारी खैर-खैरियत पूछता रहूं। अब मैंने सुना है कि तुम हिन्दुस्तान जा रहे हो। भाई बलबीर सिंह और भाई बिधावा सिंह से सलाम कहना-- और बहन अमृत कौर से भी। भाई बलबीर से कहना फजलदीन राजी-खुशी है। वो भूरी भैंसे जो वो छोड़ गये थे उनमें से एक ने कट्टा दिया है दूसरी के कट्टी हुई थी पर वो छ: दिन की हो के मर गयी और और मेरे लायक जो खिदमत हो कहना, मै। हर वक्त तैयार हूं और ये तुम्हारे लिए थोड़े से मरून्डे लाया हूं।
बिशन सिंह ने मरून्डे की पोटली लेकर पास खड़े सिपाही के हवाले कर दी और फजलदीन से पूछा- टोबा टेकसिंह कहां है?
-टोबा टेकसिंह... उसने कद्रे हैरत से कहा-- कहां है! वहीं है, जहां था।
बिशन सिंह ने पूछा-- पाकिस्तान में या हिन्दुस्तान में?
-हिन्दुस्तान में...। नहीं-नहीं पाकिस्तान में...।
फजलदीन बौखला-सा गया। बिशन सिंह बड़बड़ाता हुआ चला गया-- ओपड़ी गुड़गुड़ दी एन्क्स दी बेध्याना विमन्ग दी वाल आफ दी पाकिस्तान एन्ड हिन्दुस्तान आफ दी हए फिटे मुंह।
तबादले की तैयारियां मुकम्मल हो चुकी थीं। इधर से उधर और उधर से इधर आने वाले पागलों की फेहरिस्तें (सूचियां) पहुंच गयी थीं, तबादले का दिन भी मुकरर्र हो गया था। सख्त सर्दियां थीं। जब लाहौर के पागलखाने से हिन्दू-सिख पागलों से भरी हुई लारियां पुलिस के मुहाफिज दस्ते के साथ् रवाना हुई तो मुतअल्लिका (संबंधित ) अफसर भी हमराह थे। वाहगा के बार्डर पर तरफैन के (दोनों तरफ से) सुपरिटेंडेंट एक दूसरे से मिले और इब्तेदाई कार्रवाई खत्म होने के बाद तबादला शुरू हो गया जो रात भर जारी रहा।
पागलों को लारियों से निकालना और उनको दूसरे अफसरों के हवाले करना बड़ा कठिन काम था। बाज तो बाहर निकलते ही नहीं थे। जो निकलने पर रजामन्द होते थे, उनको संभालना मुश्किल हो जाता था क्योंकि इधर-उधर भाग उठते थे। जो नंगे थे उनको कपड़े पहनाये जाते, तो वो फाड़कर अपने तन से जुदा कर देते क़ोई गालियां बक रहा है, कोई गा रहा है। आपस में लड़-झगड़ रहे हैं, रो रहे हैं, बक रहे हैं। कान पड़ी आवाज सुनायी नही देती थी-- पागल औरतों का शेरोगोगा अलग था और सर्दी इतने कड़ाके की थी कि दांत बज रहे थे।
पागलों की अकसरियत इस तबादले के हक में नहीं थी। इसलिए कि उनकी समझ में आता था कि उन्हें अपनी जगह से उखाड़कर कहां फेंका जा रहा है। चन्द जो कुछ सोच रहे थे-- 'पाकिस्तान जिन्दाबाद' के नारे लगा रहे थे। दो-तीन मरतबा फसाद होते-होते बचा, क्योंकि बाज मुसलमान और सिखों को ये नारे सुनकर तैश आ गया। जब बिशन सिंह की बारी आयी ओर वाहगा के उस पार मुतअल्लका अफसर उसका नाम रजिस्टर में दर्ज करने लगा तो उसने पूछा-- टोबा टेकसिंह कहां है? पाकिस्तान में या हिन्दुस्तान में? -मुतअल्लका अफसर हंसा--पाकिस्तान में।
यह सुनकर विशनसिंह उछलकर एक तरफ हटा और दौड़कर अपने बाकी मांदा साथियों के पास पहुंच गया। पाकिस्तानी सिपाहियों ने उसे पकड़ लिया और दूसरी तरफ ले जाने लगे। मगर उसने चलने से इन्कार कर दिया, और जोर-जोर से चिल्लाने लगा--टोबा टेकसिंह कहां है ओपड़ी गुड़गुड़ दी एन्क्स दी बेध्याना विमन्ग दी वाल आफ दी टोबा टेकसिंह एन्ड पाकिस्तान। उसे बहुत समझाया गया कि देखों अब टोबा टेकसिंह हिन्दुस्तान में चला गया है। अगर नहीं गया तो उसे फौरन वहां भेज दिया जायगा। मगर वो न माना। जब उसको जबरदस्ती दूसरी तरफ ले जाने की कोशिश की गयी तो वह दरम्यान में एक जगह इस अन्दाज में अपनी सूजी हुई टांगों पर खड़ा हो गया जैसे अब उसे वहां से कोई ताकत नहीं हटा सकेगी।
आदमी चूंकि बेजरर था इसलिए उससे मजीद जबरदस्ती न की गयी। उसको वहीं खड़ा रहने दिया गया और बाकी काम होता रहा। सूरज निकलने से पहले साकित व साकिन (शान्त) बिशनसिंह हलक से एक फलक शगाफ (आसमान को फाड़ देने वाली ) चीख निकली -- इधर-उधर से कई अफसर दौड़ आये और देखा कि वो आदमी जो पन्द्रह बरस तक दिन-रात अपनी टांगों पर खड़ा रहा, औंधे मुंह लेटा था। उधर खारदार तारों के पीछे हिन्दुस्तान था-- इधर वैसे ही तारों के पीछे पाकिस्तान। दरमियान में जमीन के इस टुकड़े पर, जिसका कोई नाम नहीं था, टोबा टेकसिंह पड़ा था।
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