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अब्बा

पिता क़ैफी आज़मी के लिए मशहूर आदाकार शबाना आज़मी के दिल से निकले कुछ खूबसूरत एहसास...

अब्बा

Thursday March 30, 2017 , 5 min Read

"बचपन में मुझे अपने मां-बाप की बेटी होने की वजह से कुछ अनोखे तजुर्बे भी हुए, जैसे कि जिस अंग्रेजी स्कूल में मेरा दाख़िला कराया जा रहा था, वहां शर्त थी कि वही बच्चे दाख़िला पा सकते हैं जिनके मां-बाप को अंग्रेजी आती हो- और क्योंकि, मेरे मां-बाप अंग्रेजी नहीं जानते थे इशलिए मेरे दाख़िले के लिए मशहूर शायर सरदार ज़ाफरी की बीवी सुल्ताना ज़ाफरी मेरी मां बनीं और अब्बा के एक दोस्त मुनीश नारायण सक्सेना ने मेरे अब्बा का रोल किया...!"

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वो कभी दूसरों जैसे थे ही नहीं, लेकिन बचपन में ये बात मेरे नन्हें से दिमाग में समाती नहीं थी... न तो वे अॉफिस जाते थे, न अंग्रेजी बोलते थे और न दूसरों के डैडी और पापा की तरह पैंट और शर्ट पहनते थे- सिर्फ सफेद कुर्ता-पजामा। वो डैडी या पापा की बजाय अब्बा थे। ये नाम भी सबसे अलग ही था- मैं स्कूल में अपने दोस्तों से उनके बारे में बात करते कुछ कतराती थी- झूट-मूट कह देती थी- वो कुछ बिज़नेस करते हैं- वर्ना सोचिए, क्या ये कहती कि मेरे अब्बा शायर हैं? शायर होने का क्या मतलब? यही न कि कुछ काम नहीं करते!

बचपन में मुझे अपने मां-बाप की बेटी होने की वजह से कुछ अनोखे तजुर्बे भी हुए, जैसे कि जिस अंग्रेजी स्कूल में मेरा दाख़िला कराया जा रहा था, वहां शर्त थी कि वही बच्चे दाख़िला पा सकते हैं जिनके मां-बाप को अंग्रेजी आती हो- और क्योंकि, मेरे मां-बाप अंग्रेजी नहीं जानते थे इशलिए मेरे दाख़िले के लिए मशहूर शायर सरदार ज़ाफरी की बीवी सुल्ताना ज़ाफरी मेरी मां बनीं और अब्बा के एक दोस्त मुनीश नारायण सक्सेना ने मेरे अब्बा का रोल किया। दाखिला तो मिल गया लेकिन कई बरस बाद मेरी वाइस प्रिंसिपल ने मुझे बुला के कहा कि कल रात उन्होंने एक मुशायरे में मेरे अब्बा को देखा और वे उन अब्बा से बिल्कुल अलग थे, जो पेरेंट्स डे पर स्कूल आते हैं। एक पल तो मेरे पैरों से ज़मीन निकल गई, फिर मैंने जल्दी से कहानी गढ़ी कि पिछेले दिनों टायफॉइड होने की वजह से अब्बा अचानक इतने दुबले हो गये हैं कि पहचाने नहीं जाते- बेचारी वाइस प्रिंसिपल मान गई और मैं बाल-बाल बच गई।

अब्बा को छुपाकर रखना ज्यादा दिन मुमकिन न रहा। उन्होंने फिल्मों में गीत लिखने शुरू कर दिये थे और एक दिन मेरी एक दोस्त ने क्लास में आकर बताया कि उसने मेरे अब्बा का नाम अखबार में पढ़ा है। बस, उस पल के बाद बाज़ी पलट गई- जहां शर्मिंदगी थी, वहां गौरव आ गया। चालीस बच्चे थे क्लास में मगर किसी और के डैडी या पापा का नहीं, मेरे अब्बा का नाम छपा था अख़बार में।

अब मुझे उनका सबसे अलग तरह का होना भी अच्छा लगने लगा। वो सबकी तरह पैंट-शर्ट नहीं, सफेद कुर्ता-पजामा पहनते हैं- जी! अब मैं उस काले रंग की गुड़िया से भी खेलने लगी जो उन्होंने मुझे कभी लाकर दी थी और समझाया था कि सारे रंगों की तरह काला रंग भी बहुत सुंदर होता है। मगर मुझे तो सात बरस की उम्र में वैसी ही गुड़िया चाहिए थी, जैसी मेरी सारी दोस्तों के पास थी- सुनहरे बालों और नीली आंखों वाली। मगर अब जब कि मुझे सबसे अलग अब्बा अच्छे लगने लगे तो फिर उनकी दी हुई सबसे अलग गुड़िया भी अच्छी लगने लगी और जब मैं अपनी काली गुड़िया लेकर पूरे आत्मविश्वास के साथ अपनी दोस्तों के पास गई और उन्हें अपनी गुड़िया के गुण बताये तो उनकी सुनहरे बालों और नीली आंखों वाली गुड़िया उनके दिल से उतर गई। ये सबसे पहला सबक था जो अब्बा ने मुझे सिखाया, कि कामयाबी दूसरों की नकल करने में नहीं, आत्मविश्वास में है

हमारे घर का माहौल बिल्कुल बोहिमियन था। नौ बरस की उम्र तक मैं अपने माँ-बाप के साथ कम्युनिस्ट पार्टी के 'रेड फ्लैग हॉल' में रहती थी। हर कामरेड परिवार को एक कमरा दिया गया था। बाथरूम वगैरह तो कॉमन था। पार्टी मैंबर होने के नाते पति-पत्नी की ज़िंदगी आम ढर्रे से थोड़ा हट कर थी। ज्यादातर पत्नियां वर्किंग-वुमेन थीं- तो बच्चों को संभालना कभी मां की जिम्मेदारी होती, कभी बाप की। मम्मी पृथ्वी थियेटर्स में काम करती थीं और अक्सर उन्हें टूर पर जाना होता था- तो उन दिनों मेरे छोटे भाई बाबा और मेरी सारी जिम्मेदारी अब्बा पर आ जाती थी।

मम्मी ने ये काम शुरू तो आर्थिक ज़रूरतों से किया था क्योंकि अब्बा जो कमाते थे वो पार्टी को दे देते थे। पार्टी उन्हें महीने का चालीस रुपए अलाउन्स देती थी। चालीस रूपये और चार लोगों का परिवार! बाद में हमारे हालात थोड़े बेहतर हो गए। फिर हम लोग जानकी कुटीर में रहने आ गए मगर मम्मी ने थियेटर में काम जारी रखा। उनकी थियेटर में बहुत प्रशंसा होती थी और उन्हें भी अपने काम से बहुत प्यार था। मुझे याद है, महाराष्ट्र स्टेट प्रतियोगिता के लिए वो एक ड्रामा 'पगली' की तैयारी कर रहीं थीं और अपने रोल में इतनी खोई रहती थीं, कि वो अपने डायलॉग पगली के अंदाज़ में बोलने लगती थीं, कभी धोबी से हिसाब लेते हुए, कभी रसोईं में खाना पकाते हुए। 

मुझे लगा मेरी मां सचमुच पागल हो गई हैं। मैं रोते हुए अब्बा के पास गई जो मेज अपनी मेज़ पर बैठे कुछ लिख रहे थे। अपना काम छोड़कर वे मुझे समुंदर के किनारे ले गए। रेत पर चलते-चलते उन्होंने मुझे समझाया कि मम्मी को कितने कम वक्त में कितने बड़े ड्रामे की तैयारी करनी पड़ रही है और हम सबका, परिवार के हर सदस्य का ये कर्तव्य है कि वो उनकी मदद करे, वरना वो इतनी बड़ी प्रतियोगिता में कैसे जीत पायेंगी! बस फिर क्या था- मैंने जैसे सारी जिम्मेदारी अपने सिर पर ले ली और जब मम्मी को बेस्ट एक्ट्रेस अवॉर्ड मिला महाराष्ट्र सरकार से, तो मैं ऐसे इतरा रही थी जैसे अवॉर्ड मम्मी ने नहीं, मैंने जीता हो। मम्मी को डायलॉग याद करवाने की जिम्मेदारी अब्बा ने हमेशा अपनी समझी।  

-शबाना आज़मी

-प्रस्तुत लेख साहित्यिक पत्रिका उद्भावना मार्च 2003 अंक से लिया गया है। बाकी का लेख पढ़ने के लिए 'अगली किश्त' अब्बा (पार्ट-2) का इंतज़ार करें...