रुहानी इश्क के कलमकार निदा फ़ाज़ली
हिंदी-उर्दू के अजीम शायर मरहूम निदा फ़ाज़ली के, आज (12 अक्तूबर) उनका जन्मदिन है। निदा साहब की जिंदगी से कई दर्दनाक वाकये लिपटे रहे। हिन्दू-मुस्लिम क़ौमी दंगों से तंग आ कर उनके माता-पिता पाकिस्तान जाकर बस गए। उन्होंने वतन नहीं छोड़ा।
उनके नामकरण के साथ भी एक विशेष अर्थ जुड़ा है। निदा के मायने आवाज़। फ़ाज़िला क़श्मीर के एक इलाके का नाम है, जहाँ से निदा के पुरखे आकर दिल्ली में बस गए थे, इसलिए उन्होंने अपने उपनाम में फ़ाज़ली जोड़ा।
मुबई में दिल का दौरा पड़ने से 78 साल की उम्र में उनका इंतकाल हो गया। उनके जाने के बाद ये लाइनें आज भी उनको चाहने वालों के मन में गूंजती रहती हैं, 'अपनी मर्जी से कहां अपने सफर के हम हैं, रुख हवाओं का जिधर का है उधर के हम हैं।'
क्या हुआ शहर को कुछ भी तो दिखाई दे कहीं,
यूं किया जाए कभी खुद को रुलाया जाए
घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूं कर लें,
किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए
ये शब्द हैं हिंदी-उर्दू के अजीम शायर मरहूम निदा फ़ाज़ली के, आज (12 अक्तूबर) उनका जन्मदिन है। निदा साहब की जिंदगी से कई दर्दनाक वाकये लिपटे रहे। हिन्दू-मुस्लिम क़ौमी दंगों से तंग आ कर उनके माता-पिता पाकिस्तान जाकर बस गए। उन्होंने वतन नहीं छोड़ा। भारत के कई शहरों में भटकने के बाद ग्वालियर (म.प्र.) से जाकर बम्बई (मुंबई) बस गए। सन 1964 में मुंबई वह रोजी-रोटी की तलाश में गए थे। वहां कलम तेज रफ्तार चल पड़ी। वह धर्मयुग, ब्लिट्ज़ आदि पत्र-पत्रिकाओं में लिखने लगे। उससे वह मशहूर होने लगे। उनका जन्म 12 अक्तूबर 1938 को दिल्ली में पिता मुर्तुज़ा हसन और माँ जमील फ़ातिमा के घर माँ की इच्छा के विपरीत तीसरी संतान के रूप में हुआ था।
निदा साहब के पिता और भाई भी शायर थे। उनका बचपन ग्वालियर की गलियों में गुजरा। वहीं पढ़ाई-लिखाई हुई। निदा बहुत कम उम्र से ही शेरो शायरी करने लगे थे। निदा के पड़ोसी रहे ख्यात कवि नरेश सक्सेना बताते हैं कि पिता और भाई की शायरी के आगे निदा की चल नहीं सकी थी। वह इस बात से परेशान रहते थे। पिता और भाई के पाकिस्तान चले जाने के बाद उनकी जिंदगी अजीबोगरीब मंजर में फंस गई। आखिरकार उन्होंने बामशक्कत मुंबई में अपना मकाम बना लिया। उनके नामकरण के साथ भी एक विशेष अर्थ जुड़ा है। निदा के मायने आवाज़। फ़ाज़िला क़श्मीर के एक इलाके का नाम है, जहाँ से निदा के पुरखे आकर दिल्ली में बस गए थे, इसलिए उन्होंने अपने उपनाम में फ़ाज़ली जोड़ा। मुंबई में दिल का दौरा पड़ने से 78 साल की उम्र में उनका इंतकाल हो गया। उनके जाने के बाद ये लाइनें आज भी उनको चाहने वालों के मन में गूंजती रहती हैं-
अपनी मर्जी से कहां अपने सफर के हम हैं,
रुख हवाओं का जिधर का है उधर के हम हैं।
कहा जाता है कि निदा को एक लड़की की मोहब्बत ने शायरी सिखा दी। कॉलेज में उनके आगे की पंक्ति में एक लड़की बैठा करती थी। उससे उन्हें लगाव महसूस होने लगा था। एक दिन नोटिस बोर्ड पर उन्होंने पढ़ा, Miss Tondon met with an accident and has expired. उसे पढ़ते ही निदा का दिल रोने लगा। उसके बाद एक सुबह वह एक मंदिर के पास से गुजर रहे थे। वहां उन्होंने किसी को सूरदास का भजन 'मधुबन तुम क्यौं रहत हरे, बिरह बियोग स्याम सुंदर के ठाढ़े क्यौं न जरे' गाते हुए सुना। उस वक्त निदा को लगा कि उनके अंदर दबा गम का सागर उमड़ पड़ा है। फिर उन्होंने कबीरदास, तुलसीदास, बाबा फ़रीद आदि को पढ़ा। उनसे प्रेरित होकर सरल-सपाट शब्दों में लिखना सीखा। उर्दू शायरी का उनका पहला संकलन 1969 में छपा। अपने पिता मुर्तुज़ा हसन के इंतकाल पर उन्होंने एक बेजोड़ नज्म लिखी,
तुम्हारी कब्र पर मैं
फ़ातेहा पढ़ने नही आया,
मुझे मालूम था, तुम मर नही सकते
तुम्हारी मौत की सच्ची खबर
जिसने उड़ाई थी, वो झूठा था,
वो तुम कब थे?
कोई सूखा हुआ पत्ता, हवा मे गिर के टूटा था।
मेरी आँखे
तुम्हारी मंज़रो मे कैद है अब तक
मैं जो भी देखता हूँ, सोचता हूँ
वो, वही है
जो तुम्हारी नेक-नामी और बद-नामी की दुनिया थी।
कहीं कुछ भी नहीं बदला,
तुम्हारे हाथ मेरी उंगलियों में सांस लेते हैं,
मैं लिखने के लिये जब भी कागज कलम उठाता हूं,
तुम्हे बैठा हुआ मैं अपनी कुर्सी में पाता हूं ।
बदन में मेरे जितना भी लहू है,
वो तुम्हारी लगजिशों नाकामियों के साथ बहता है,
मेरी आवाज में छुपकर तुम्हारा जेहन रहता है,
मेरी बीमारियों में तुम मेरी लाचारियों में तुम।
तुम्हारी कब्र पर जिसने तुम्हारा नाम लिखा है,
वो झूठा है, वो झूठा है, वो झूठा है,
तुम्हारी कब्र में मैं दफन तुम मुझमें जिन्दा हो,
कभी फुरसत मिले तो फ़ातेहा पढनें चले आना।
उर्दू का पहला संकलन प्रकाश में आने के साथ ही उनका बॉलीवुड का भी सफर शुरू हो गया। फ़िल्म प्रोड्यूसर-निर्देशक-लेखक कमाल अमरोही उन दिनों फ़िल्म रज़िया सुल्ताना बना रहे थे। इसमें गीत लिखने का जिम्मा तो ग्वालियर के ही रहने वाले जाँनिसार अख़्तर (जावेद अख्तर के अब्बा) को दिया गया था लेकिन वह उसी बीच चल बसे। इसके बाद फ़िल्म के दो गाने लिखने का जिम्मा निदा फाजली को दे दिया गया। इसके बाद उन्होंने रज़िया सुल्ताना के लिए बेजोड़ गीत लिखे- तेरा हिज्र मेरा नसीब है, तेरा गम मेरी हयात है और आई ज़ंजीर की झन्कार, ख़ुदा ख़ैर कर। और फिल्मों में यही उनके पहले दो फ़िल्मी गीत रहे थे। इसके बाद उनके कई फिल्मी गीत काफी पॉपुलर हुए- होश वालों को खबर क्या, बेखुदी क्या चीज है (सरफ़रोश), कभी किसी को मुक़म्मल जहाँ नहीं मिलता और तू इस तरह से मेरी ज़िंदग़ी में शामिल है (आहिस्ता-आहिस्ता), चुप तुम रहो, चुप हम रहें (इस रात की सुबह नहीं) आदि। निदा की ज्यादातर लाइनों में कभी मुल्क तो कभी माशूका का दर्द छिपा होता था। पढ़ते-पढ़ते वह कभी-कभी रुआंसा हो जाया करते थे। बाद में देश-विदेश के कविसम्मेलनों और मुशायरों में नामवर शायर शुमार होने लगे,
अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफ़र के हम हैं।
रुख़ हवाओं का जिधर का है उधर के हम हैं।
पहले हर चीज़ थी अपनी मगर अब लगता है
अपने ही घर में किसी दूसरे घर के हम हैं।
वक़्त के साथ है मिट्टी का सफ़र सदियों तक
किसको मालूम कहाँ के हैं किधर के हम हैं।
चलते रहते हैं कि चलना है मुसाफ़िर का नसीब
सोचते रहते हैं कि किस राहगुज़र के हम हैं।
गिनतियों में ही गिने जाते हैं हर दौर में हम
हर क़लमकार की बेनाम ख़बर के हम हैं।
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