Brands
Discover
Events
Newsletter
More

Follow Us

twitterfacebookinstagramyoutube
ADVERTISEMENT
Advertise with us

उपेक्षा और बदहाली में बीते मेजर ध्‍यानचंद के जीवन के आखिरी दिन

अशोक कुमार ने इस विडम्बना को लेकर एक मार्के की बात की. वे बोले, “जब बाबूजी ज़िंदा थे उन्हें रेलवे के जनरल डिब्बे में दिल्ली लाया गया. जब वे मर गए उनके लिए हेलीकॉप्टर मौजूद था.”

उपेक्षा और बदहाली में बीते मेजर ध्‍यानचंद के जीवन के आखिरी दिन

Sunday September 11, 2022 , 4 min Read

कितनी ही दफ़ा सुनाई-दोहराई गई वे कहानियां अब घिस चुकीं कि सन 1936 के बर्लिन ओलिम्पिक में ध्यानचंद ने किस तरह नंगे पैर खेल कर फाइनल में मेजबान जर्मनी को एक के मुकाबले आठ गोल से हराया था और कैसे इस हार से खीझा-गुस्साया हुआ हिटलर स्टेडियम छोड़ कर चला गया था और बाद में उसने ध्यानचंद को अपनी सेना में बड़ा ओहदा देने का प्रस्ताव किया था. एक कहानी यह भी बताती थी कि हिटलर ने ध्यानचंद की हॉकी स्टिक तुड़वा कर देखी. वह जानना चाहता था कि उसमें चुम्बक तो नहीं लगा हुआ है.

अब मेजर ध्यानचंद को भारत रत्न दिए जाने की मांग करने वालों की संख्या हर साल घटती जाती है. उनकी आवाज़ भी हर बीतते साल के साथ धीमी होती गई है.

अपनी आत्मकथा की शुरुआत में ध्यानचंद विनम्रता के साथ लिखते हैं, “निस्संदेह आप जानते हैं कि मैं एक साधारण मनुष्य पहले हूं और उसके बाद एक सिपाही. मेरे बचपन से ही मुझे ऐसी तालीम दी गयी है कि पब्लिसिटी और चकाचौंध से दूर रहूं. मैंने एक ऐसा पेशा चुना जिसमें हमें सिपाही बनाना सिखाया जाता था और कुछ नहीं.”

दो राय नहीं कि भारत के इतिहास में उनकी टक्कर का दूसरा खिलाड़ी कोई न हुआ. एक गुलाम देश की तरफ से खेलते हुए उन्होंने तीन लगातार ओलिम्पिक खेलों में टीम को गोल्ड मैडल दिलाने में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. यह उनका जादू था कि भारत के आज़ाद होने के तीस-पैंतीस बरस तक हॉकी हमारा राष्ट्रीय खेल बना रहा. गांवों-क़स्बों में बच्चे उनकी कहानियां सुनते-सुनाते बड़े होते थे.

तब क्रिकेट के वर्ल्ड कप को कोई नहीं जानता था. हॉकी के वर्ल्ड कप का हर किसी को इंतज़ार रहता जिसे 1975 में भारत ने जीता था. अजितपाल सिंह, लेस्ली फर्नांडीज़, गोविंदा, सुरजीत सिंह, असलम शेर खान और अशोक कुमार जैसे दिग्गज खिलाड़ियों वाली भारतीय टीम ने फाइनल में पाकिस्तान को 2-1 से हराया था. विनिंग गोल करने वाले इनसाइड स्ट्राइकर अशोक कुमार ध्यानचंद के ही बेटे थे.

ध्यानचंद को अपने जीवन के आख़िरी साल बदहाली और उपेक्षा में बिताने पड़े. उन्हें स्वास्थ्य की अनेक समस्याएं हो गई थीं. जिस तरह उनके देशवासियों ने, सरकार ने और हॉकी फ़ेडरेशन ने उनके साथ पिछले कुछ सालों में सुलूक किया था, उसका उन्हें दुःख भी था और शायद थोड़ी कड़वाहट भी. उनके कई मेडल तक चोरी हो गए थे. मृत्यु से दो माह पूर्व ध्यानचन्द ने एक पत्रकार से कहा था, "जब मैं मरूंगा तो दुनिया शोक मनाएगी लेकिन हिन्दुस्तान का एक भी आदमी एक भी आंसू तक नहीं बहाएगा. मैं उन्हें जानता हूं."

ध्यानचंद का स्वास्थ्य काफी खराब हो गया तो उन्हें उनके घर झांसी से दिल्ली लाया गया. 3 दिसम्बर 1979 को तड़के दिल्ली के एम्स में उन्होंने आख़िरी सांस ली. अब उनके शरीर को झांसी ले जाया जाना था जिसके लिए वैन की ज़रूरत थी. अशोक कुमार अस्पताल से बाहर आकर उसकी व्यवस्था में जुट गए.

कुछ घंटों बाद जब वे वापस पहुंचे, ध्यानचंद की मौत की खबर रेडियो के माध्यम से संसार भर में फैल चुकी थी. अस्पताल में भीड़ लग गई थी और सरकार में प्रभाव रखने वाले लोगों ने आनन-फानन में हेलीकॉप्टर की व्यवस्था कर दी.

अशोक कुमार ने इस विडम्बना को लेकर एक मार्के की बात की. वे बोले, “जब बाबूजी ज़िंदा थे उन्हें रेलवे के जनरल डिब्बे में दिल्ली लाया गया. जब वे मर गए उनके लिए हेलीकॉप्टर मौजूद था.”

अशोक कुमार को भारतीय हॉकी अधिकारियों के हाथों एक अन्तिम ज़िल्लत यह झेलनी पड़ी कि उन्हें 1980 के मॉस्को ओलिम्पिक के तैयारी शिविर में भाग लेने से इस वजह से रोक दिया गया कि पिता के श्राद्ध में व्यस्त होने के कारण वे समय पर ट्रेनिंग कैम्प नहीं पहुंच सके. इस अपमान के चलते अशोक कुमार ने उसी दिन हॉकी से सन्यास ले लिया. वे उनतीस साल के थे.

आधुनिक समय के एक और शानदार खिलाड़ी और ज़बरदस्त लेफ्ट आउट जफ़र इकबाल के हवाले से यह बात पढ़ने को मिलती है कि जब ध्यानचंद के परिवार की सहायता के लिए दिल्ली के शिवाजी स्टेडियम में एक चैरिटी मैच आयोजित किया गया तो कुल 11,638 रुपये इकठ्ठा हुए.

इस तरह इतनी बड़ी रकम जुटा कर कृतज्ञ राष्ट्र ने उनके प्रति अपना फर्ज निभाया और तय किया कि हर साल ध्यानचंद को उनके जन्मदिन पर याद करेंगे और उन्हें भारत रत्न दिए जाने की मांग करेंगे.