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कुम्भ की महिमा से ओतप्रोत हैं मध्यकालीन ऐतिहासिक अभिलेख

कुंभ मेला (सांकेतिक तस्वीर- साभार सोशल मीडिया)


बहुपंथीय और बहुसांस्कृतिक भारत की गोद में प्रसवित और पल्लवित होने वाला कुम्भ, सिर्फ एक स्नान की डुबकी मात्र न होकर, भारतवर्ष की अनेकता में एकता का जय घोष है।


कुम्भ, भारत की सांस्कृतिक, अध्यात्मिक चेतना का स्पंदन है। बहुपंथीय और बहुसांस्कृतिक भारत की गोद में प्रसवित और पल्लवित होने वाला कुम्भ, सिर्फ एक स्नान की डुबकी मात्र न होकर, भारतवर्ष की अनेकता में एकता का जय घोष है। वैभव और वैराग्य के मध्य आस्था का करलव है कुम्भ। किन्तु प्रश्न यह है कि इस विराटतम कुम्भ आयोजन की ऐतिहासिकता क्या है? पौराणिक सन्दर्भों के इतर सरकारी और ऐतिहासिक अभिलेख कुम्भ के विषय में क्या दास्तान कहते हैं? मध्यकालीन ऐतिहासिक स्रोतों में किस शक्ल में दर्ज है कुम्भ? इन कौतुक जनित प्रश्नों के उत्तर की तलाश में गुजरे वक्त के कुछ पन्ने पलटने पर कुम्भ संदर्भित ऐतिहासिकता के दर्जनों साक्ष्य प्राप्त होते हैं। 


यदि मध्यकालीन ऐतिहासिक स्रोतों पर विश्वास किया जाये तो कुम्भ पर्व के स्नान का महत्व केवल हिन्दू धर्म तथा संस्कृति तक ही सीमित नहीं। सच पूछिये तो यह भारत जैसे बहुजातीय देश में एकता का उद्घोषक माना गया है। धार्मिक स्नान के जो विभिन्न वृत्तान्त हमें मध्यकालीन यूरोपियन यात्रियों तथा मुगल कालीन सूत्रों में मिलते हैं वे अपनी पूर्ण रोमांचक घटनाओं सहित उतने ही वास्तविक हैं जितनी किवदन्तियां। आश्चर्यजनक तथ्य तो यह है कि मध्यकालीन अलबेरूनी, इब्रेबतूता, अबुलफजल जैसे विवेकी तथा बुद्धि सम्पन्न लेखक भी इससे प्रभावित दिखते हैं, तथा बिना सन्देह प्रकट किये, इस प्रकार टिप्पणी करते हैं जैसे कोई भी धर्मानुयायी अन्य विश्वासों को धर्म का हिस्सा न समझ कर भी उसे आदर सहित गले लगाता है।


अकबर कालीन इतिहासकारों के लेखों के विषय में भारत सरकार के गजेटियर जनपद इलाहाबाद में विवरण मिलता है कि ऐतिहासिक वृत्तांतों में प्रयाग की जो बारम्बार चर्चा की गई है वह इस नगर के बढ़ते हुए महत्व का प्रमाण है। अकबर कालीन इतिहासकार बदायूंनी लिखते हैं कि २३ सफर ९८२ का कुम्भ वर्ष महत्वपूर्ण था। 1575 ई. में बादशाह ने प्रयाग की यात्रा की और 'गंगा और यमुना के स्थल पर एक शाही नगर की नींव डाली और उसका नाम इलाहाबास रखा (एस.क्यू. बदायूंनी)। उसने लिखा है कि काफिर लोग इस पवित्र स्थान मानते हैं और अपने धर्म मत में, जिसका एक सर्वाधिक महत्वपूर्ण विशेषता पुनर्जन्म है, बताये गए पुण्यों की प्राप्ति की इच्छा से सभी प्रकार के कष्ट सहने के लिए तैयार रहते हैं...एक ऊंचे वृक्ष की चोटी से नदी के गहरे पानी में कूद कर प्राण दे देते हैं।


अकबर ने सैर-सपाटे के लिए नौका से इलाहाबाद की यात्रा की जहां पर वह 04 महीने तक ठहरा था (निजामुद्दीन अहमद, ए.क्यू.बदायूंनी, बी.ए. स्मिथ)। 

पवित्र गंगा नदी के प्रति मुगल सम्राटों का विशेष प्रेम था। अबुफजल आईने अकबरी में लिखता है कि अकबर गंगा के पानी को आबेहयात यानी अमृत रस कहता था। गंगा नदी के किनारे कुछ विश्वसनीय लोग नियुक्त किये जाते थे जो उसे यह पानी जार में भर कर भेजते थे। जब वह पंजाब में रहता तो हरिद्वार से तथा जब वह फतेहपुर सीकरी में रहता तो सौंरों से गंगाजल उसके पीने के लिए ले जाया जाता। यात्रा में हो या महल में, वह केवल गंगाजल ही पीता था। अकबर के उच्चाधिकारी भी गंगाजल के रसिया थे। अबुलफजल पूर्ण आस्था से कहता है कि गंगाजल चाहे कितनी लम्बी अवधि तक रखा जाए उसमें कोई परिवर्तन नहीं होता, न ही वह खराब होता है। इब्रेबतूता ने भी गंगा को बैकुण्ठ सरोवर का नाम दिया है तथा संगम एवं गंगा के इन यात्रियों का भी भावभीना उल्लेख किया है। अबुलफजल प्रयाग को मन्दिरों का सम्राट तथा तीर्थराज कहता है।


अकबर का इतिहासकार अबुल फजल लिखता है कि बहुत दिनों से बादशाह की यह मनोकामना थी कि गंगा और यमुना नदियों के संगम-स्थल पर, जिसमें भारतवासियों की बड़ी श्रद्धा है, तथा जो देश के साधु-संन्यासियों के लिए तीर्थ-स्थान है पियाग (प्रयाग) नामक कस्बे में एक बड़े शहर की स्थापना की जाए तथा वहां अपनी पसन्द का एक बड़ा किला बनवाया जाय। उसका विचार कुछ समय तक उस स्थान पर स्वयं रह कर देश के विद्रोहियों को आज्ञाकारिता का सबक सिखाने तथा महासागर तक शान्ति स्थापित करने का था (अबुल फजल)।


अलबेरूनी ने लिखा है कि भारतीय खगोलशास्त्रियों ने यूनानियों का अनुकरण करते हुए ग्यारहवीं राशि को बाल्टी या बर्तन बता कर उसे कुम्भ का नाम दिया है। ग्रहण के सन्दर्भ में वह समुद्रमंथन तथा देवों और दैत्यों के युग का वर्णन करते हुए बराहमिहिर के साहित्य के आधार पर विष्णु द्वारा अमृत बांटने तथा राहु के द्वारा इस की प्राप्ति का उल्लेख करता है। अलबेरूनी यह भी कहता है कि यद्यपि विष्णु ने उसे पहचान कर चक्र का प्रहार भी किया परन्तु तब तक वह अमृतपान कर चुका था। असुर न तो मर सकता था, न ही भगवान विष्णु उसके साथ भेदभाव रखना चाहते थे इसके साथ ही अलबेरूनी ने संक्रान्ति के अवसर पर तेल तथा गल्ले के दान के महत्व पर प्रकाश डाला है।


कुम्भ का समय पौष मास की पूर्णिमा से लेकर माघ मास की पूर्णिमा तक माना गया है और न जाने कब से यह अक्षुण्य बना हुआ है। कहते हैं जब बृहस्पति कुम्भ राशि में तथा सूर्य तथा चन्द्र मेष राशि में प्रवेश करते हैं। ग्रह नक्षत्रों का यह सुन्दर योग जब बारह वर्ष में पुन: आता है जो जयन्त द्वारा बारह दिनों में 12 स्थानों पर अमृत कुम्भ रखने की स्मृति में यह पर्व कुम्भ कहलाया। इलाहाबाद के कुम्भ का उल्लेख करते हुए मनुच्ची लिखता है कि गंगा यमुना के संगम पर दोनों नदियों के अलग-अलग रंग देख कर वह चकित रह गए। मनुच्ची को बहादुर खां के हकीम मोमिन खान ने सन् १६६७ में इलाहाबाद दुर्ग में दावत दी थी। 

मनुच्ची को लोगों ने बताया कि देवताओं के बाणों के द्वारा यह झरना निकला जो नदी बन कर बह रहा था। मनुच्ची लिखता है कि प्रत्येक 0५ वर्षों के पश्चात हिन्दुओं का एक समूह यहां स्नान के लिए आता है। इनकी संख्या इतनी अधिक होती है कि कुचल कर तथा दम घुटने से मर जाने की वारदातें होती रहती हैं। मनुच्ची यह देख कर दंग रह गया कि ऐसे समय मरने पर मृतकों के सम्बन्धी शोक ग्रस्त होने के बजाय हर्षोल्लास सहित कहते हैं कि उनके सम्बन्धी एक पवत्रि तीर्थ में मरे। उनके लिए तीर्थ का मतलब ही यही था।


बदायूंनी लिखता है कि लोग पवित्र स्थान पर इनाम की लालसा तथा काल चक्र से मुक्ति के इच्छुक स्वयं को शारीरिक यातनायें देते हैं। कुछ अपने सिर को कुल्हाड़ी पर रखते हैं, कुछ जीभ को दो भागों में काट लेते हैं। कुछ स्वयं को नदी की लहरों में ऊंचाई से फेंकते हैं तथा फिर गहराई में डूब जाते हैं। ह्वेनसांग, इब्रेबतूता, बुलफजल, बदायोनी इत्यादि सभी साहित्यकारों ने अक्षयवट का उल्लेख किया है जहां ग्रहण के समय की गई आत्महत्या पाप नहीं मानी जाती।

ऐतिहासिक दृष्ट से फारसी सूत्रों के अध्ययन के आधार पर इस संदर्भ में कई प्रश्न उठते हैं कहीं यह पर्व देवगुरू बृहस्पति के कुम्भ राशि में प्रवेश के उपलक्ष में तो कुम्भ नहीं कहलाया। 


इलाहाबाद के कुम्भ पर्व के अलावा मध्यकालीन इतिहासकारों ने हरिद्वार के मेलों तथा स्नान का जिक्र भी जोर-शोर से किया है । अपनी आत्मकथा में तैमूर ने हरिद्वार के घेरे के दौरान कितने ही लोगों का सिर, दाढ़ी मुड़वाने, दान में पैसा देने, नदी में पैसा तथा मृतकों की राख फेंकने का वर्णन किया है। २५ जनवरी तथा 0५ फरवरी के बीच फादर एक वायवा ने यात्रियों के एक बड़े समूह को देखा जो पवित्र गंगा की ओर जा रहा था। जहांगीर वेगवती गंगा के दर्शन करने के लिए २२ दिसम्बर, १६२१ को हरिद्वार के कुम्भ का मजा लूटने आ पहुंचा। अपनी आत्मकथा तुजके जहांगीरी में हरिद्वार की अपनी इस यात्रा का उल्लेख करते हुए लिखता है कि इस प्रसिद्ध तीर्थस्थान पर बहुत से साधू-सन्त-ब्राह्मण एकत्र होते हैं।


कुछ तो यहीं पर एक कोना चुन कर स्वयं को पूजा-पाठ में संलग्न रखते हैं। जहांगीर को यह स्थान बहुत प्रिय लगा। उसने सम्पत्ति समान तथा धन देकर बहुत दान पुण्य किया। परन्तु वह वहां चाहते हुए भी रुक नहीं सका क्योंकि न केवल जलवायु कुछ प्रतिकूल लगी बल्कि उसे हरिद्वार में कोई भी ऐसा स्थान नहीं मिल पाया जहां वह स्थाई रूप से ठहर सके।


यूरोपियन विद्वान हार्डविक कहता है कि साल १७९६ में कुम्भ के मेले में ढई लाख लोग आये थे, रौपर के कथानुसार १८०८ के कुम्भ में 0२ लाख व्यक्ति शामिल हुए थे। धार्मिक यात्रा व स्नान का एक रोचक आख्यान हमें टैवर्नियर के विवरण में मिलता है। वह कहता है कि निर्धन लोग जो ४०० से ८०० मील की दूरी से आते हैं यदि उनकी अपनी पूरी पूंजी भी इस सफर के लिए कम हो जाये तो वे दान पर जीते हैं। सभी अपनी हैसियत के अनुसार ही पैदल, घोड़ों पर पालकी पर चलते हैं। यूरोपियन पर्यटकों के समान ये यात्री एक दो या अलग-अलग नहीं बल्कि समूल बना कर चलते हैं। कभी-कभी पालकी, डोली, बैलगाड़ी, घोड़ों पर अथवा पैदल ही पूरे गांव के लोग अथवा नगर के नागरिक मीलों की यात्रा तय करते हैं। माँ बच्चों को संभालती, पिता बर्तनों के भण्डार को संभालते। इस समूह में यदि कोई निर्धन हो तो धनवान उसकी पूर्ण सहायता करते। कभी-कभी इस जुलूस में वे अपने देवी-देवताओं की मूर्तियां भी लेकर चलते हैं।


 टैवर्नियर आगे लिखता है कि ये लोग अपने साथ खाने पीने का समान लेकर नहीं चलते, क्योंकि हर कोने में मिठाइयां-सब्जी इत्यादि मिल जाती थी। एक बार जब बाढ़ ने रास्ता रोक लिया तो एक साधू ने अपनी तांत्रिक शक्ति से मनचाहा सामान अपनी चादर से निकाल कर देना शुरू कर दिया। टैवर्नियर आश्चर्यचकित रह गया कि नदी के किनारे तम्बू लगा कर हर प्रकार के कष्ट भोग कर यह परीक्षा देना कितना कठिन है।


सबसे प्रमाणिक दस्तावेज भारत सरकार के गजेटियर जनपद इलाहाबाद के अनुसार सन् 1750 के लगभग अहमद खां बंगस को पृथ्वीपति (प्रतापगढ़ के राजा ) और बलवंत सिंह (वाराणसी के राजा) से मित्रतापूर्ण पत्र मिले और उसने फरवरी, 1751 में इलाहाबाद पहुंच कर राजा हरबोंग के किले के नाम से प्रसिद्ध एक टीले पर अपनी तोपें लगाईं और किले पर गोले बरसाना शुरू कर दिया। किले में जो दुर्जेय सेना स्थित थी वह लम्बी अवधि तक बड़ी बहादुरी से उसकी रक्षा करती रही। इस सेना को एक अद्धितीय बहादुर नागा संन्यासी राजेन्द्र गिरी गोसाईं से भी सहायता मिली थी। 


यह संन्यासी इस पवित्र नगरी में तीर्थयात्रा के निमित्त आया था (यदुनाथ सरकार, ए.एल. श्रीवास्तव: फाल ऑफ द मुगल एम्पायर)। वह अपने कुछ साहसी शिष्यों के साथ (जो बिलकुल नंगे रहते थे और अपने शरीर पर राख मलते और जटा धारण करते थे) अफगानों पर दिन में दो या तीन बार आक्रमण करके और कुछ को मार कर अपने तम्बू में लौट आता था, उसने अपना शिविर पुराने शहर और किले के बीच लगा रखा था और उसने अली-कुली खां के बार-बार अनुरोध करने पर भी किले में शरण लेना अस्वीकार कर दिया था (यदुनाथ सरकार, ए.एल. श्रीवास्तव: फाल ऑफ द मुगल एम्पायर)।


गजेटियर के अध्याय-03 (शीर्षक लोग) के पेज-50 पर माघ मेले (महाकुम्भ) के बारे में कुछ इस तरह उल्लेख किया गया। प्रति वर्ष माघ मास में लगने के कारण इस मेले को माघ मेला कहा जाता है। यह मेला मकर संक्रान्ति से (जब सूर्य मकर राशि में प्रवेश करता है) प्रारम्भ होता है। इस दिन से एक मास तक प्रयाग क्षेत्र में निवास करना अत्याधिक धार्मिक पुण्य का कार्य माना जाता है। यद्यपि इस मास के कुछ दिन ही विशेष महत्वपूर्ण हैं परन्तु पूरा मास ही पवित्र माना जाता है। धार्मिक प्रवृत्ति के लोग प्रतिदिन त्रिवेणी संगम में स्नान करना पुण्य का कार्य समझते हैं और जो अधिक पुण्यात्मा हैं, वे पूरे महीने मेला क्षेत्र में वास करते हैं तथा कतिपय निर्धारित शास्त्रीय अनुष्ठानों और व्रतों का दृढ़तापूर्वक पालन करते हैं और ऐसे लोगों को कल्पवासी कहा जाता है। मकर संक्रान्ति, मौनी अमावस्या, बसंत पंचमी, अचला एकादशी और पूर्णिमा के पर्व इस मास के मुख्य स्नान पर्व हैं।


प्रत्येक बारहवें वर्ष जब सूर्य मेष राशि और बृहस्पति कुम्भ राशि में रहता है, कुम्भ पर्व होता है और इस अवसर पर प्रयाग में विशाल मेला लगता है जिसमें बहुत बड़ी संख्या में लोग गंगा और यमुना के संगम पर एकत्र होते हैं। दो कुम्भ मेलों के बीच एक अर्ध कुम्भ भी पड़ता है। इन मेलों की सबसे प्रमुख विशेषता यह है कि इनमें हिन्दू धर्म के विभिन्न सम्प्रदायों (अखाड़ों) के सैकड़ों साधु-संन्यासी भी आते हैं और वे मुख्य स्नान पर्वों पर विधिवत जुलूस बना कर नदी तट की ओर जाते हैं। प्रत्येक सम्प्रदाय का अपना निजी शिविर होता है और जुलूस में केवल उन्हीं को भाग लेने की अनुमति होती है जिन्हें इसका परम्परा-सिद्ध अधिकार प्राप्त होता है। जुलूस का नेतृत्व निर्वाणी सम्प्रदाय साधु करते हैं, यह नागा गोसाईं कहलाते हैं और शैव मत के अनुगामी होते हैं।


ये नग्न रहते हैं और जटा धारण करते हैं और प्रत्येक साधु के पास एक घण्टी होती है। यह सम्प्रदाय धन-सम्पन्न है, इलाहाबाद नगर में दारागंज में इसका विशाल मठ है और इसका कोई सदस्य भिक्षा नहीं मांगता। जुलूस में दूसरे क्रम पर निरंजनी होते हैं। यह भी शैव सम्प्रदाय के हैं और नग्न रहते हैं, यह भी दारागंज में रहते हैं और व्यापक रूप से महाजनी को व्यवसाय करते हैं। इनके बाद जुलूस में बैरागियों का स्थान रहता है, ये भ्रमण करने वाले साधु हैं, इनके तीन उप-विभाग हैं जो निर्वाणी, निर्मोही और दिगम्बरी कहलाते हैं। इनके पश्चात जुलूस में छोटा पंचायती अखाड़ा आता है जो पंजाब के उदासियों का निकाय है। 

मुट्ठीगंज में इस अखाड़े का बहुत बड़ा मठ है, यह लोग मूल रूप से सिख थे जो हिन्दू हो गए। यह लोग अब भी सिखों के गुरूग्रन्थ साहिब का अपने प्रमुख धर्मग्रन्थ के रूप में आदर करते हैं। इसी सम्प्रदाय की एक सम्पन्न शाखा बड़ा पंचायती अखाड़ा है, जिसका प्रधान केन्द्र कीडगंज में है। बन्धुआ हसनपुर (जिला सुल्तानपुर) के नानक शाही और निर्मली (जो सिख हैं और जिनका मठ कीडगंज में है तथा जो महाजनी करते हैं) इसी अखाड़े से सम्बद्ध हैं।


इन दोनों सम्प्रदायों के साथ-साथ विन्दवासी भी जुलूस में भाग लेते हैं, बैरागियों को छोड़ कर शेष अखाड़े जुलूस में बड़ी सज-धज से चलते हैं, जिसमें अनेक हाथी, शहनाई वादक और उनके महन्तों की पालकियां होती हैं। उपरोक्त अखाड़ों के अतिरिक्त बहुसंख्यक अन्य साधु भी इन मेलों में आते हैं और अपने-अपने शिविर लगाते हैं। दारागंज के रामानुजी और कीडगंज स्थित बाबा हरिदास की धर्मशाला के रामानन्दी नामक दो प्रमुख वैष्णव सम्प्रदाय भी कुम्भ पर्व के धार्मिक कार्य-कलाप में भाग लेते हैं, उनके अनुयायियों में से गृहस्थ अपने परिवार के साथ रहते हैं और अपने पारिवारिक एवं सांसारिक बन्धनों को छोड़ चुके त्यागी मुख्यत: भिक्षा पर निर्भर रहते हैं।


इन मेलों और पर्व को अनुसूचित जातियों तथा अन्य पिछड़े वर्ग के हिन्दू सदस्य भी मनाते हैं और इसके अतिरिक्त कुछ अवसरों पर इनके द्वारा अपने पूर्वजों वाल्मीकि, रैदास और अन्य से सम्बन्धित जुलूस भी निकाले जाते हैं। ऐतिहासिक साक्ष्यों में इस प्रकार के संदर्भ भरे पड़े हैं, जो शोधकर्ताओं की रुचि और प्रयत्न की प्रतीक्षा कर रहे हैं। इनमें हमारे देश का इतिहास छिपा पड़ा है।


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