आदिवासी महाराष्ट्र में कुपोषित बच्चों के लिए आशा का भंडार हैं ये रसोई
कुछ साल पहले, महाराष्ट्र की आदिवासी बेल्ट छह से कम उम्र के कुपोषित बच्चों की बढ़ती संख्या के लिए बदनाम थी। हालांकि अब सरकार और अन्य संगठनों के बीच आपस में मिलकर किए जा रहे बेहतर प्रयास चीजों को बदलने में मदद कर रहे हैं।
महाराष्ट्र के नासिक जिले के इगतपुरी तालुका के मुंढेगाँव में एकलव्य मॉडल आवासीय विद्यालय (EMRS) में कक्षा 8 की एक छात्रा फर्श पर बैठी है। छात्रा का नाम मनीषा भैरव है। थाली में रखीं चपातियाँ, सब्जी, चावल और दाल को खाते हुए वह कहती है, “जो खाना हमें दिया जाता है वह मुझे पसंद है; यह बहुत स्वस्थ है। हमारे शिक्षक हमें अधिक सब्जियां खाने के लिए कहते हैं।” आज भले ही मनीषा के माता-पिता किसान हैं, लेकिन वह किसी दिन इंजीनियर बनने का सपना देख रही है। जैसे ही वह दोपहर का भोजन खत्म करती है, उसकी सहेलियाँ लता सासने और हेमंत खाडे, उसका बाहर खेल के मैदान में शामिल होने का इंतजार कर रही होती हैं। यहां युवा छात्र कॉन्फीडेंट होकर अंग्रेजी में बात करते हैं। यहां आपको यह विश्वास करना मुश्किल होगा कि कुछ साल पहले तक, वे महाराष्ट्र के पालघर जिले के आदिवासी इलाके में निर्माण स्थलों पर रह रहे थे, जहां उनके माता-पिता प्रवासी मजदूर के रूप में काम करते थे।
आज, वे आश्रमशालाओं के नाम से सरकार द्वारा संचालित आवासीय विद्यालयों में पढ़ते हैं, जहाँ राज्य जनजातीय विकास विभाग ने सुनिश्चित किया है कि बच्चों को न केवल मुफ्त शिक्षा मिले, बल्कि टाटा ट्रस्ट और अक्षय पात्र के सहयोग से चलने वाले केंद्रीयकृत रसोई के माध्यम से पौष्टिक भोजन भी उपलब्ध हो। आज हम सभी को महाराष्ट्र के पालघर और नासिक जिले में पौष्टिक भोजन की व्यवस्था के महत्व को समझने की आवश्यकता है। ये क्षेत्र मुख्य रूप से आदिवासी आबादी द्वारा बसे हुए हैं, जो आय सृजन और आजीविका के अवसरों के लिए कृषि और वन संसाधनों पर निर्भर हैं।
वे चावल, रागी (उंगली बाजरा), और दालों की मुख्य आहार के रूप में खेती करते रहे हैं। जंगलों की समृद्ध विविधता ने उन्हें मौसमी उत्पादन भी प्रदान किया, जिसमें विभिन्न प्रकार के कंद, फल, फली, पत्ते और फूल शामिल थे। लेकिन, क्षेत्र में सूखे के साथ संयुक्त संसाधनों की कमी के कारण फसल की पैदावार कम हुई, जिससे लोगों के आहार का सेवन प्रभावित हुआ और जिससे बच्चों में पोषण स्तर भी कम हुआ। टाटा ट्रस्ट्स के वरिष्ठ सलाहकार, बुर्जिस एस तारापोरवाला कहते हैं, "कुपोषण से ग्रसित ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य के प्रति कम पहुंच, कमजोर समुदायों द्वारा वहन किए जाने वाले अल्पपोषण का एक बड़ा बोझ है।"
केंद्र सरकार एकीकृत बाल विकास सेवाओं का संचालन करती है। इन सेवाओं की कवरेज में सुधार करने वाले प्रणालीगत दृष्टिकोण के माध्यम से कुपोषण से निपटने की सख्त आवश्यकता को स्वीकार करते हुए, महाराष्ट्र सरकार ने 2015 में कई संगठनों के साथ सहयोग किया, और अन्नपूर्णा रसोई केंद्र का शुभारंभ किया। यह सरकार द्वारा संचालित आवासीय विद्यालयों के लिए उन क्षेत्र में पोषण मानकों को बेहतर बनाने के लिए शुरू किया गया था, जहां एनीमिया, अल्पपोषण, वास्टिंग और स्टंटिंग काफी ज्यादा हैं।
अपनी शुरुआत के बाद से ही इस परियोजना को महाराष्ट्र के पालघर और नासिक के ग्रामीण क्षेत्रों में मिड-डे मील (मध्याह्न भोजन योजना) के साथ एकीकृत किया गया है। दो रसोई अभी चालू हैं, एक कम्बलगाँव (पालघर) में, और दूसरी मुंडेगाँव (नाशिक) में, ये दोनों रसोई 52 स्कूल और 22,000 बच्चों को भोजन देती हैं।
आदिवासी विकास विभाग के सचिव राजगोपाल देवरा कहते हैं कि 2020 तक हमारा कुपोषण मुक्त महाराष्ट्र का लक्ष्य है। वे कहते हैं, "पौष्टिक भोजन प्रदान करके, हम आदिवासी समुदायों से स्कूल जाने वाले बच्चों के बीच कुपोषण के मुद्दे को भी सीधे संबोधित कर रहे हैं। अगले दो वर्षों के दौरान, इन दो परियोजनाओं की सफलता को देखते हुए, हम अपने अल्टीमेट लक्ष्य का समर्थन करने के लिए तैयार होंगे। जोकि 2020 तक कुपोषण मुक्त महाराष्ट्र का है।"
महाराष्ट्र के 1108 आश्रम विद्यालयों और 490 छात्रावासों में पढ़ने वाले लगभग छह लाख आदिवासी छात्रों को सपोर्ट करने वाले आदिवासी विकास विभाग (टीडीडी) ने नासिक जिले में इंग्लिश मीडियम आवासीय विद्यालय, मुंडेगांव और पालघर जिले में एकलव्य मॉडल आवासीय विद्यालय, कंबलगाँव में पायलट आधार पर 'अन्नपूर्णा' नामक केंद्रीयकृत रसोई परियोजना की शुरुआत की है।
आने वाली चुनौतियां
टाटा ट्रस्ट्स के पोषण प्रमुख टी मधुसूदन राव कहते हैं, "खराब पोषण के कई कारण हैं। मुख्य रूप से, अपर्याप्त भोजन, स्वास्थ्य सेवाओं तक खराब पहुंच, अस्वस्थ वातावरण में रहना और महिलाओं व बच्चों की अपर्याप्त देखभाल शामिल है। इसके अलावा इन कारकों से भी कुपोषण हो सकता है, जैसे- स्टंटिंग (उम्र के हिसाब से कम लंबाई); वेस्टिंग (लंबाई के हिसाब से कम वजन); और कम वजन (उम्र के हिसाब से कम वजन)।" जहां जनजातीय विकास विभाग ने केंद्रीय रसोई के लिए स्थानों की पहचान करने में मदद की, और बुनियादी ढांचे व जनशक्ति (रसोइया, सहायक और सुरक्षा) प्रदान की है तो वहीं सामान्य खर्चों के प्रावधान के लिए, टाटा ट्रस्ट्स और अक्षय पात्र ने पूरा डिजाइन तैयार करने में मदद की है। उन्होंने संचालन बेसलाइन अध्ययन, और गुणवत्ता आश्वासन में सहायता करने के लिए साइट पर तकनीकी और प्रबंधकीय समर्थन टीमों को रखा है।
एक स्केलेबल और टिकाऊ मॉडल
रसोई के माध्यम से, संगठन दिन में तीन बार स्वच्छ और पौष्टिक भोजन प्रदान करता है, और दैनिक आधार पर 20,000 बच्चों को नाश्ता कराता है। एक रसोई में 60,000 भोजन तैयार करने की क्षमता है। मधुसूदन कहते हैं, “अतिरिक्त सब्सिडी पर भरोसा किए बिना, मॉडल स्केलेबल और टिकाऊ है। प्रत्येक केंद्रीय रसोई में 5 करोड़ रुपये के शुरुआती खर्च की आवश्यकता होती है। सरकार अपने बजट के अनुरूप 9 करोड़ रुपये से लेकर 10 करोड़ रुपये तक का परिचालन व्यय करती है। दूसरा ये कि केंद्रीय रसोई के माध्यम से प्राप्त पहुंच बहुत अधिक है।" मधुसूदन कहते हैं कि प्रत्येक रसोई 70 किमी तक स्कूलों में सर्विस दे सकती है। प्रत्येक केंद्रीय रसोई में चार चावल की बड़ी कढ़ाही हैं जिनकी क्षमता 600-लीटर है। इसके अलावा 1,200 लीटर की क्षमता वाली दाल की दो बड़ी कढ़ाही हैं।
सुदूर गाँवों में पले-बढ़े, बहुत से ऐसे छात्र हैं जो उस भोजन से परिचित नहीं हैं जो उन्हें परोसा जाता है। नासिक और पालघर रसोई के प्रभारी टाटा ट्रस्ट के कार्यकारी अधिकारी मनोज कुलकर्णी ने एक घटना को याद करते हुए बताया कि अक्टूबर 2017 में रसोई में नाश्ते के लिए इडली और सांबर परोसना शुरू किया गया था। अधिकांश छात्र इसे छूने से हिचकते थे क्योंकि उन्होंने पहले कभी ऐसी डिश नहीं देखी थी। वे कहते हैं, “उन्होंने सांभर को पिया, लेकिन इडली को छूने से मना कर दिया। मुझे उन्हें बताना पड़ा कि यह दक्षिण भारत में एक लोकप्रिय चीज है और स्वास्थ्य के लिए पौष्टिक और अच्छी है।" वर्तमान में, एक रसोई इस स्कूल में 3,500 छात्रों सहित 50 किमी के दायरे में आश्रम स्कूलों सहित नौ अन्य संस्थानों में जरूरतों को पूरा कर सकती है।
जमीनी असर
महाराष्ट्र के दो जिलों के सरकारी आदिवासी आवासीय विद्यालयों में केंद्रीकृत रसोई (अन्नपूर्णा) और नियमित रसोई के एक दिसंबर 2017 के तुलनात्मक अध्ययन से पता चला है कि केंद्रीकृत रसोई के माध्यम से पौष्टिक भोजन के प्रावधान में कम वजन और कमजोर बच्चों के प्रतिशत में गिरावट देखी गई। यूनिसेफ, मुंबई की राज्य सलाहकार और अध्ययन की लेखिका देविका देशमुख कहती हैं, “केंद्रीकृत रसोई अच्छी तरह से तैयार, गुणवत्ता वाला भोजन प्रदान करती है जो पोषण से भरपूर होते हैं। सरकारी आदिवासी आवासीय विद्यालयों में केंद्रीयकृत और स्थानीय रसोई के माध्यम से नियमित पौष्टिक भोजन का प्रावधान, आदिवासी बच्चों के बीच कुपोषण से निपटने के लिए प्रभावी और महत्वपूर्ण था।”
स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय के अनुसार, पिछले दो वर्षों से कुपोषण के कारण मौतों की संख्या में गिरावट आई है। 2016-17 में, छह साल से कम उम्र के 315 बच्चे कुपोषण का शिकार हुए थे। तब से, शुक्र है कि इन दुखद मौतों में कमी आई है: 2017-18 में 248 और 2018-19 में 189 बच्चे कुपोषण का शिकार हुए हैं। कई सहयोगी संगठनों के साथ मिलकर सरकार द्वारा शुरू की गई कई योजनाओं के कारण यह उपलब्धि संभव हो पाई है। इनमें आंगनबाड़ी केंद्रों का नवीनीकरण और पोषण सुधार परियोजना को मजबूत करना शामिल है।
(भोजन) आगे की योजना
महाराष्ट्र सरकार इस मॉडल को आगे बढ़ाने के लिए उत्सुक है। अन्नपूर्णा सेंट्रल किचन को जनरल मिल्स इंडिया जैसे कॉरपोरेट्स का भी समर्थन प्राप्त है, जो इन केंद्रीय रसोईघरों द्वारा दी जाने वाली आश्रमशालाओं में पोषण संबंधी जागरूकता कार्यक्रमों का समर्थन करता है। इसके अलावा, यह रसोई घर में काबिलियत और प्रशिक्षण कार्यक्रमों के माध्यम से अपनी विशेषज्ञता देता है। सबसे खास बात ये है कि इंडियन होटल्स लिमिटेड (ताज ग्रुप) ने अपने शेफ के माध्यम से रेसिपीज (व्यंजनों) को मानकीकृत करने में मदद की है।
मधुसूदन कहते हैं, "पोषण-युक्त भोजन के साथ-साथ शिक्षा, स्वच्छता, गरीबी उन्मूलन, स्वास्थ्य, आदि के माध्यम से देश में उचित पोषण मानकों को सुनिश्चित करने के लिए दीर्घकालिक समाधान सुनिश्चित करना है।" पोषण सुरक्षा के लिए इस बहुआयामी दृष्टिकोण को अपनाने और भारत के खाद्य और स्वास्थ्य पारिस्थितिकी तंत्र में हितधारकों के साथ काम करके, सरकार, भारत की सबसे कमजोर आबादी कहे जाने वाले 'बच्चों' यानी भारत के भविष्य के लिए बड़े पैमाने पर स्थायी प्रभाव बना सकती है।
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