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अपने ही घरवालों ने नदी में फेंक दिया, ये स्कूल बदल रहा बच्चों की ज़िन्दगी

मैं कुछ बोलती नहीं थी. शुरुआत में सबको लगा शायद बेटी देर से बोलना शुरू करेगी. कुछ टाइम और बिता फिर एक दिन पापा मुझे डॉक्टर के पास ले गए. डॉक्टर ने कुछ टेस्ट करके बताया की मैं ना ही बोल सकती हूँ और ना ही सुन सकती हूँ. मुझे नहीं पता था कि मेरे हिस्से की खुशियाँ इतनी जल्दी ख़त्म होने वाली थी.

अपने ही घरवालों ने नदी में फेंक दिया, ये स्कूल बदल रहा बच्चों की ज़िन्दगी

Sunday January 01, 2023 , 7 min Read

जब मैं पैदा हुई तब मेरे मम्मी-पापा बेहद खुश थे , कि घर में लक्ष्मी आई है. हॉस्पिटल में मिठाइयाँ बंटी, रिश्तेदारों को फ़ोन करके बताया गया. अपनों की बधाइयाँ आने लगी. पूरा घर बहुत खुश था. पैदा होने पर डॉक्टर ने मुझे मम्मी की गोद में लिटा दिया था. मम्मी के आँखों से ख़ुशी के आंसू निकल रहे थे और मम्मी मझे अपने सीने से लगाए हुए थी. उस गरमाहट को मैं महसूस कर पा रही थी . मेरे बचपन की शुरुआत बड़े लाड़ और प्यार से हुई. शुरुआती दिनों में मम्मी मुझे प्यार से बिट्टो बुलाया करती थी. कुछ दिनों बाद पूरे घर ने मिलकर मेरा नाम सिम्मी रख दिया.

सब कुछ बहुत अच्छा चल रहा था. मैं भी बहुत खुश थी. देखते-देखते दो साल बीत गए. मैं कुछ बोलती नहीं थी. शुरुआत में सबको लगा शायद बेटी देर से बोलना शुरू करेगी. कुछ टाइम और बिता फिर एक दिन पापा मुझे डॉक्टर के पास ले गए. डॉक्टर ने कुछ टेस्ट करके बताया की मैं ना ही बोल सकती हूँ और ना ही सुन सकती हूँ. मुझे नहीं पता था कि मेरे हिस्से की खुशियाँ इतनी जल्दी ख़त्म होने वाली थी. उस दिन के बाद मेरी ज़िन्दगी पूरी तरह से बदलने गई. कुछ टाइम बाद पापा हमें छोड़कर चले गए.

मुझे तीन बार मारने की कोशिश की

पापा के जाने के बाद मम्मी ने एक व्यक्ति के साथ मिलकर मुझे मारने के लिए तीन बार नदी में फेका, मगर मैं बच गयी और अंतः मेरे नाना-नानी मुझे घर से बहुत दूर एक स्कूल में छोड़ गए. ये कहानी है 11 साल की सिम्मी मिश्रा की, जिन्हें 9 साल की उम्र में उनके नाना-नानी लखनऊ के एक स्कूल में छोड़ गए थे. स्कूल का नाम है ‘भारतीय बधिर विद्यालय’ (Bhartiya Badhir Vidhyalay). एक ऐसा स्कूल जहां उन बच्चों को पढ़ाया जाता है जो बोल और सुन नहीं सकते. उन्हें इस लायक बनाया जाता है की वे अपनी ज़िन्दगी में अपना मनचाहा मुकाम हासिल कर सकें. इस स्कूल में बच्चों की रहने की व्यवस्था भी की जाती है.

ऐसे हुई स्कूल की शुरुआत

इस स्कूल को संचालित करती है बंगाल के मध्यमवर्गी परिवार की बेटी गीतांजलि नायर. गीतांजलि ने दिल्ली से ग्रेजुएशन की पढाई पूरी करने के बाद स्पेशल एजुकेशन फॉर ऑटिस्टिक चिल्ड्रेन्स (Special Education for Spastic Children) का कोर्स किया. इस कोर्स के दौरान बच्चों के ऑटिस्टिक बिहेविअर या कहें ऑटिज़्म को स्टडी किया जाता है. ऑटिज़्म (Austism) दिमाक की ग्रोथ के दौरान होने वाला एक डिसऑर्डर है जो व्यक्ति के सोशल बिहेविअर और इंटरेक्शन को प्रभावित करता है. इससे प्रभावित व्यक्ति, सीमित और रेपिटिटिव बिहेविअर शो करते हैं जैसे एक ही काम को बार-बार दोहराना.

गीतांजलि ने योरस्टोरी हिंदी (YourStory Hindi) से बातचीत के दौरान बताया कि बचपन से ही मुझे बच्चों से खासा लगाव रहा है. वो बताती है जब मैं स्कूल में थी तब भी मैं क्रेच (creche) (माता-पिता की अनुपस्थिति में शिशुओं के देखभाल का स्‍थान) से बच्चों को अपने घर ले आया करती थी. उन्हें खाना खिलाकर उनके साथ खेलती भी थी. कोर्स ख़त्म करने के बाद दिल्ली के एक एनजीओ (NGO) ‘आशा निवास’ के साथ जुड़ गई.

आशा निवास एनजीओ

आशा निवास एनजीओ दिल्ली के रेड लाइट एरियाज में काम कर रहा था. रेड लाइट एरिया में काम कर रही औरतें चाहती थी की उनके काम का साया उनके बच्चों पर ना पड़े. हमारा एनजीओ इस मुहीम में उन औरोतों की मदद कर रहा था. एनजीओ बच्चों को सीक्रेट बोर्डिंग स्कूल में रखकर उनकी पढाई पर ध्यान देता था. तब मेरी उम्र महज 25 वर्ष ही थी. मैं इन बच्चों को पढ़ाती थी.

बच्चों को समझने के लिए सीखी साइन लैंग्वेज

एनजीओ के साथ मैंने कई स्लम एरियाज में काम किया. उस दौरान मैंने फिजिकली डिसेबल बच्चों (Physically Disable Children) के लिए भी काम कर रही थी. उन्में से कुछ बच्चे ऐसे थे जो बोल और सुन नहीं पाते थे. मुझे उनसे बात करने में बहुत दिक्कत होती थी. उसके बाद मैंने अली यावर जंग नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ़ हियरिंग हैंडीकैप से साइन लैंग्वेज (Sign Language) सीखी. वहां मेरी मुलाकात धर्मेश सर से हुई थी. तब मुझे नहीं पता था की आगे चलकर धर्मेश सर ही मेरे स्कूल के प्रिसिपल बनेंगे.

डेफ बच्चों के लिए एजुकेशन मुश्किल थी

साइन लैंग्वेज सीखने की दौरान मैं बहुत कुछ सीख रही थी. मैंने नोटिस किया की गवर्नमेंट की ओर से डेफ कम्युनिटी के लिए कुछ ख़ास नहीं किया जा रहा है और वो दिन प्रतिदिन मार्जिनलिज़्ड होते जा रहे हैं. डेफ बच्चों के लिए एजुकेशन बहुत मुश्किल होती जा रही है. मैंने देखा की डेफ स्कूल के टीचर्स साइन लैंग्वेज में क्वालिफाइड नहीं हैं और ना ही वे डेफ बच्चों की साइकोलॉजी (Psychology of Deaf Children) को समझते हैं. कई स्कूल मैंने ऐसे भी देखे जहां टीचर्स बच्चों के पेरेंट्स से पैसे लेकर बच्चों को पास कर देते हैं. स्कूल ख़त्म होने के बाद भी बच्चे ना ही सही से पढ़ पाते हैं और ना ही सही से लिख पाते हैं. मैंने देखा कि जो फॉरेन से डेफ लोग आते थे, उनका रीडिंग और राइटिंग स्किल बहुत अच्छा था. उसी दिन से मैंने एक ऐसे स्कूल को शुरू करने की सोची जहां डेफ बच्चे अच्छे से पढाई कर सकें, वो भी बिना किसी मेंटल और सोशल स्ट्रेस के.

स्कूल शुरू करने में 8 साल लगे

गीतांजलि बताती हैं कि शुरुआत में मेरे पास सिर्फ स्कूल का आईडिया था. एक दिन मैंने धर्मेश सर से अपना आईडिया डिस्कस किया. धर्मेश सर भी मेरी इस मुहीम से जुड़ गए. अब स्कूल को अपना प्रिंसिपल मिल गया था. इसके बाद हमने लोगों से मिलना शुरू किया. हम अलग-अलग डेफ स्कूलों में जाते थे, बच्चों से मिलते थे. हम स्कूलों के मेथोडोलॉजी को समझने की कोशिश कर रहे थे. हम फंड्स के लिए भी लोगों से बात कर रहे थे. हमारी इस रिसर्च और प्लानिंग में पूरे 8 साल लग गए. फिर हमें एक एनजीओ का सपोर्ट मिला. हमने उत्तरप्रदेश की राजधानी लखनऊ के महानगर में एक घर रेंट पर लिया. घर का रेंट 50 हज़ार रुपए था.

अनहोनी का हवाला देकर फंडिंग रुकी

स्कूल अच्छे से शुरू हो गया था. हमने स्कूल में बच्चों के रहने की व्यवस्था भी की थी. कुछ समय बाद डेफ लड़कियां एडमिशन के लिए आई. हमने एडमिशन दे दिया मगर एनजीओ की ओर से कहा गया कि लड़के-लड़कियां एक साथ नहीं रह सकते. अगर लकड़े-लड़कियां एक साथ रहेंगे तो कोई अनहोनी हो सकती है. इस बात पर हमारे बीच काफ़ी देर तक बात हुई और अंतः एनजीओ ने आगे के लिए फंड्स देने से मना कर दिया.

हम सड़क पर आ गए

एनजीओ की ओर से फंडिंग रुकने के बाद हम महीने के ख़त्म होते-होते बेघर होने वाले थे. हमारी छत छिनने वाली और हम सड़क पर आने वाले थे. उस वक्त हम अकेले नहीं थे. हमारे साथ 10 बच्चे थे, जिसमे 5 लड़के और 5 लड़कियां थी. हम सब परेशान थे. हमने अपनी सारी सेविंग इक्कठा की और लोलोई में एक छोटा सा घर रेंट पर लिया. हमारा स्कूल चलने लगा. हमारे पास बच्चे बढ़ने लगे.

कोविडे ने सब कुछ बदल दिया

Covid से पहले हमारे पास 22 बच्चे थे . कोविड की वजह से बच्चे अपने घर वापस जाने लगे. इसी दौरान हमने धर भी बदल दिया. अभी हमारे स्कूल में 10 बच्चे हैं और एडमिशन धीरे-धीरे बढ़ रहे हैं. अब लोगों का सपोर्ट मिलने लगा है. लोग हमारे काम पर भरोसा करने लगे हैं. वो कहते हैं ना - मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंज़िल मगर, लोग साथ आते गए और कारवाँ बनता गया.

ये कहानी सिर्फ एक सिम्मी की नहीं है. ना जाने कितनी सिम्मी और राजू है जो खो जाते हैं, जिन्हें नदी में डूबने से कोई बचाने नहीं पहुँच पाता. ना जाने कितने बच्चें है जो अपने मन की बात कहना चाहते हैं, मगर नहीं कह पाते हैं. इन सबके पास अपने कई किस्से हैं, मगर ये किसी से नहीं कह पा रहें. हर किसी को गीतांजलि नायर नहीं मिलती. मगर हमारे समाज को ढेरों गीतांजलि नायर और धर्मेश सर की जरुरत है. ये बच्चे तेज रफ़्तार से भागते लोगों से पीछे रह जा रहे, मगर हम सबको इनका हाँथ पकड़कर इन्हें साथ ले चलने की जरुरत है. जरुरत है हम सबको जागरूक होने की. जरुरत है समाज को इन बच्चों को इनकी मंजिल तक पहुँचाने की. सिर्फ सरकार ही नही, हम सबको मिलकर इस दिशा में काम करने की जरुरत है.

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