क्यों करते हैं लोग आत्महत्या?
सिजोफ्रेनिया एक खतरनाक बीमारी, जिसका शिकार है हर सौ में से एक व्यक्ति...
आधुनिक जीवनशैली और दौड़-भाग भरी जिंदगी के कारण बढ़ता तनाव, पारिवारिक उलझनें, धोखेबाजी, अकेलापन आदि वजहों से लोग सीजोफ्रेनिया की चपेट में तेजी से आ रहे हैं। जागरूकता का अभाव भी संख्या बढ़ाने में बड़ी भूमिका निभा रहा है, जिसकी वजह से जिंदगी की जद्दोजहद और गगनचुंबी सपनों के पीछे भाग रही नौजवान पीढ़ी तेजी से इसकी चपेट में आ रही है।
आंकड़ों पर गौर करें तो देशभर में करीब तीस करोड़ लोग मानसिक रोग से ग्रसित हैं। उपचार के बाद मनोरोग को पूरी तरह से ठीक किया जा सकता है लेकिन जागरूकता का अभाव सबसे बड़ी परेशानी बन गई है।
कान में अजीबो गरीब आवाजें आना, एकांत ढूंढना, गुस्सा अधिक आना और बेवजह का शक करना, ये कुछ ऐसे लक्षण हैं जो सिजोफ्रेनिया बीमारी का संकेत देते हैं। 15 से 25 साल में होने वाली यह बीमारी आम मानसिक बीमारियों से काफी अलग है। खास बात यह है कि इस बीमारी में मरीज को पता ही नहीं होता है कि वह सिजोफ्रेनिया ग्रसित है
बहुत कम लोग हैं जो सिजोफ्रेनिया के बारे में जानते हैं, लेकिन हर सौ में से एक व्यक्ति इसका शिकार है। यह एक तरह का मनोरोग है, जो 18 से 25 वर्ष के आयु वर्ग में सर्वाधिक पाया जाता है। इसमें मरीज को ऐसी चीजें दिखाई व सुनाई देने लगती हैं, जो वास्तविकता में है ही नहीं। जिसकी वजह से वो बेतुकी बात करता है और समाज से कटने का प्रयास करता है। ऐसे में मरीज का सामाजिक व्यक्तित्व पूरी तरह से खत्म हो जाता है। कुछ मामलों में मरीजों में आत्महत्या की भावना भी पैदा हो जाती है। कई बार ऐसा भी देखा गया है, कि इश बीमारी में लोग इतने वहमी हो जाते हैं, कि खाना पीना तक छोड़ देते है। उन्हें डर होता है, कि कहीं कोई उसमें जहर न मिला दे। बीमारी का मुख्य कारण दिमाग में डोपामाइन न्यूरो ट्रांसमीटर्स का असंतुलन है, जो कि एक तरह का रसायन होता है। दिन भर होने वाला तनाव, उलझन, व्यस्त जिंदगी, भागदौड़ और असहनीय घटनाएं भी इस बीमारी को बढ़ाती हैं। इस बीमारी में लोगाें के काम करने की क्षमता खोने लगती है।
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आधुनिक जीवनशैली और दौड़-भाग भरी जिंदगी के कारण बढ़ता तनाव, पारिवारिक उलझनें, धोखेबाजी, अकेलापन आदि वजहों से लोग सीजोफ्रेनिया की चपेट में तेजी से आ रहे हैं। जागरूकता का अभाव भी इनकी संख्या बढ़ाने में बड़ी भूमिका निभा रहा है। सही समय पर उपचार नहीं मिलने से मरीजों की संख्या दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। जिंदगी की जद्दोजहद और गगनचुंबी सपनों के पीछे भाग रही नौजवान पीढ़ी भी तेजी से इसकी चपेट में आ रही है। आंकड़ों पर गौर करें तो देशभर में करीब तीस करोड़ लोग मानसिक रोग से ग्रसित हैं। उपचार के बाद मनोरोग को पूरी तरह से ठीक किया जा सकता है, लेकिन जागरुकता का अभाव सबसे बड़ी परेशानी बन गई है। मौजूदा समय में केवल एक तिहाई मरीज ही उपचार कराने के लिए चिकित्सकों के पास पहुंच रहे हैं। इसके अतिरिक्त देश भर में मनोचिकित्सकों की भी भारी कमी बनी हुई है। सवा सौ करोड़ के देश में सिर्फ चार हजार मनोचिकित्सक ही उपलब्ध हैं।
सीजोफ्रेनिया सामान्यत: जैविक, आनुवांशिक, मनोवैज्ञानिक व सामाजिक कारणों से होती है। एक ख़ास प्रकार की मस्तिष्क संरचना इस रोग से पीड़ित लोगों की समस्याओं के लिए जिम्मेदार हो सकती है। रिज़ल्ट से साबित हुआ है कि सीजोफ्रेनिया रोगियों के दिमाग के डोर्सोलेटरल प्रीफ्रांटल कोर्टेक्स भाग में उत्पन्न होने वाले अवरोध समस्या के लिए जिम्मेदार हैं। दिमाग का यह भाग मेमोरी मैकेनिज़म में अहम भूमिका निभाता है। यह भाग कॉम्प्लेक्स और ज्ञान-संबंधी कार्यों में सूचनाओं का अस्थायी रूप से स्टोर करने में मदद करता है। हाल में हुई एक शोध के दौरान करीब 45 सामान्य लोगों और 51 सीजोफ्रेनिया रोगियों पर अध्ययन किया गया था। सीजोफ्रेनिया बीमारी आमतौर पर बचपन या युवास्था में शुरू होती है।
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कैसे करें पहचान?
व्यक्ति भयभीत और आशंकित रहता है और कहता है कि लोग उसका नुकसान कर देंगे अथवा उसके खिलाफ षडयंत्र रचा जा रहा है। उसको लगता है कि उसके परिजन, मित्र सभी उसके दुश्मन हैं। व्यक्ति अकेले बैठे- बैठे मुस्कराता, हंसता या बड़बड़ाता रहता है। उसे आवाजें आती हैं, जो उसे डराती, दोष या आदेश देतीं हैं और यह आवाजें किसी अन्य को सुनाई नहीं देतीं। व्यक्ति समाज से दूर, अकेला रहता है और बिना किसी कारण के काम पर नहीं जाना चाहता है। उसको अपनी साफ- सफाई का तनिक भी होश नहीं रहता है। व्यक्ति बिना किसी कारण के ज्यादा आक्रमक या उत्तेजित हो जाता है। इन हालात में वह परिजनों, दूसरों या खुद को चोट पहुंचा सकता है। व्यक्ति को शंका रहती है कि उसके भोजन में कुछ मिलाया जा रहा है। इस कारण भूख न लगना या भोजन ग्रहण करने से इन्कार कर बाहर भोजन करता है।
सीजोफ्रेनिया के मरीज का कभी न उड़ाएं मजाक
मानसिक रोगी के लिए पागल शब्द का इस्तेमाल बिल्कुल नहीं करना चाहिए। मरीज का मजाक न उड़ाकर उसका उत्साह बढ़ाते रहना चाहिए। मानसिक रोग का इलाज लंबा चलता है, इसलिए बिना परामर्श दवा बंद नहीं करनी चाहिए। यदि मरीज सही से दवा नहीं लेता है, तो इसके दुष्परिणाम भी सामने आ सकते हैं। आत्महत्या प्रवृत्ति वाले मरीजों को अकेले नहीं छोड़ना चाहिए।
इस बीमारी में एंटी सायकेट्रिक दवाएं एवं इलेक्ट्रिक शॉक ट्रीटमेंट बहुत फायदेमंद साबित होता है। उपचार में देरी या अनियमितता से बीमारी उग्र एवं लंबी अवधि की हो जाती है। तीन से छह माह के निरंतर उपचार के बाद ही इसका फायदा दिखता है।
एक अनुमान के मुताबिक भारत की करीब 1.2 प्रतिशत आबादी सीजोफ्रेनिया से ग्रस्त है। हर एक हजार वयस्क लोगों में से करीब 12 लोग इस बीमारी से पीड़ित होते हैं। देशभर में जितनी आत्महत्याएं हो रही हैं, उनमें 90 प्रतिशत के पीछे मुख्य कारण इसे ही माना गया है। चिकित्सक बताते हैं कि इस बीमारी में रोगी खुद को बीमार नहीं मानकर स्वस्थ समझता है और चिकित्सक को दिखाने भी नहीं आता। कई बार परिवार वाले रोगी को जबरदस्ती डॉक्टर के पास दिखाने लाते हैं।
-प्रज्ञा श्रीवास्तव