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बंधनों को तोड़कर देश को स्वर्ण दिलाने वाली रिक्शा चालक की बेटी स्वप्ना बर्मन

बंधनों को तोड़कर देश को स्वर्ण दिलाने वाली रिक्शा चालक की बेटी स्वप्ना बर्मन

Wednesday December 19, 2018 , 5 min Read

बेहद गरीब परिवार में जन्मीं रिक्शा चालक की बेटी स्वप्ना बर्मन अपनी शारीरिक विकृतियों पर काबू पाते हुए देश को स्वर्ण पदक दिलाकर आज जिस ऊंचाई पर हैं, उनका जिंदगीनामा लड़कियों के लिए एक प्रेरणा स्रोत बन गया है।

स्वप्ना बर्मन

स्वप्ना बर्मन


इस दौरान वह अपनी पीठ और टखने की चोट, घुटने की नस में खिंचाव और पेट के निचले हिस्से में तकलीफ, पैर की छह उंगलियों की दिक्कतों से भी जूझती रहीं। वर्ष 2017 में उन्होंने एशियाई एथलेटिक्स चैंपियनयशिप में सोना जीत लिया।

रिक्शाचालक की बेटी, घर-परिवार की फटेहाली और अपनी शारीरिक विकृतियों के बावजूद एशियाई खेलों में सोना जीतने वाली हमारे देश की इक्कीस वर्षीय पहली हेप्टेथलीट स्वप्ना बर्मन का जिंदगीनामा उस कामयाबी की दास्तान है, जिस पर किसी को भी हैरत और फ़क्र हो सकता है। पश्चिमोत्तर बंगाल के गांव घोषपारा (जलपाईगुड़ी) में एक राजबोंशी जनजाति में पैदा हुईं स्वप्ना अपने माता-पिता की चार संतानों में सबसे छोटी हैं। उनके परिवार वाले आज भी घर-गृहस्थी चलाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।

घरों में झाड़ू-पोंछा और साथ-साथ चाय बागान में नौकरी भी करते हुए और पिता ने रिक्शा चलाते हुए उनको पाल-पोषकर बड़ा किया है। कुछ वर्ष पहले उनके पिता पंचानन बर्मन को लकवा मार गया था। उसके बाद स्वप्ना के भाई-बहन रोजी-रोटी जुटाने में लग गए। उनके पिता चाहते थे कि वह खिलाड़ी बनें। एशियाई खेल स्पर्द्धा में भाग लेने के दौरान भी स्वप्ना को अपने शरीर की चोटों पर भी पार पाना पड़ा। उसी दौरान एक समय ऐसा भी आया, जब स्वप्ना को अपने पैरों में फिट आने वाले जूतों के लिए भी संघर्ष करना पड़ा। उनके दोनों पैरों में छह-छह उंगलियां हैं। पांव की अतिरिक्त चौड़ाई खेलों में उसकी लैंडिंग को मुश्किल बना देती है, जिससे उनके जूते जल्दी फट जाते हैं। अपनी ट्रेनिंग का खर्च उठाना भी हमेशा उन पर भारी पड़ता रहा लेकिन उन्होंने कभी हार नहीं मानी।

खेल की दुनिया में कदम रखने के लिए स्वप्ना बर्मन ने सबसे पहले खेतों की पंगडंडी पर दौड़ लगाई थी। एक दिन जब पता चला तो भारतीय खेल प्राधिकरण के प्रशिक्षिक रहे कोच सुभाष सरकार उन्हें इस अंदेशे के साथ अपने साथ कोलकाता ले गए कि खेल में प्रोत्साहन न मिलने पर कहीं वह भी न अपने मां के साथ चाय बागानों में नौकरी करने लगें। कोच का सहयोग मिला और स्वप्ना ने लुधियाना (पंजाब) में स्कूल स्तर की स्पर्धा में ऊंची कूद में स्वर्ण पदक जीत लिया।

उसके बाद कई-कई रिकार्ड बनाने का चांस मिलता गया। कोच सुभाष सरकार उसकी एक पर एक मिलती जा रही कामयाबी देखकर हैरान थे। वह स्वप्ना को हाई जंप से हेप्टेथलॉन का प्रशिक्षण देने लगे। वर्ष 2013 में गुंटूर में हेप्टेथलॉन में रजत पदक हासिल करने के बाद तो उन्होंने फिर कभी कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। इसके बाद वह सत्रह साल की उम्र में सत्रहवीवीं फेडरेशन कप सीनियर एथलेटिक्स चैंपियनशिप में शामिल हुईं और दक्षिण कोरिया में आयोजित एशियाई खेलों के लिए क्वॉलीफाई कर लिया। वर्ष 2014 के एशियाई खेलों में वह पांचवें स्थान पर रहीं।

इस दौरान वह अपनी पीठ और टखने की चोट, घुटने की नस में खिंचाव और पेट के निचले हिस्से में तकलीफ, पैर की छह उंगलियों की दिक्कतों से भी जूझती रहीं। वर्ष 2017 में उन्होंने एशियाई एथलेटिक्स चैंपियनयशिप में सोना जीत लिया। उन्होंने इस साल अगस्त में एशियाई खेलों में सात दौर के कड़े मुकाबले में कुल 6,026 अंक हासिल कर अपने करियर का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया। अब उनकी नजर वर्ष 2020 के ओलंपिक पर है क्योंकि आज भी अस्वस्थ होने के कारण वह अगले साल किसी बड़ी खेल प्रतियोगिता में भाग नहीं ले सकती हैं।

स्वप्ना बताती हैं कि वह जब अपने मोहल्ले में हाई जंप की प्रैक्टिस करती थीं, लोकल खेलों में भाग लेती थीं, उनका एक ही लक्ष्य रहता था कि उनको किसी तरह कोई सरकारी नौकरी मिल जाए। उनका सपना अब अपने देश को आगे ले जाना है। ये वही स्वप्ना हैं, जिन्होंने जकार्ता में दांत का दर्द काबू करने के लिए खेलते समय गाल पर फीता बांध लिया था। स्वप्ना ने जैसे ही जकार्ता (इंडोनेशिया) में 18वें एशियाई खेलों की हेप्टाथलन स्पर्धा में स्वर्ण पदक अपने नाम किया, आज उनकी कामयाबी पर रिक्शा चालक पिता को नाज है, उनको दुनिया भर से अब बधाइयां मिलती रहती हैं।

चौथी क्लास से इस सफर पर चल पड़ी बेटी की सफलता से गदगद मां बाशोना ने तो सफलता की कामना के लिए पूरे दिन अपने आप को काली माता के मंदिर में बंद कर लिया था। इसी साल सितंबर में बंगाल सरकार ने स्वप्ना के लिए 10 लाख रुपये का पुरस्कार और सरकारी नौकरी की घोषणा की। यह वादा स्वयं पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने किया था। इस घोषणा की काफी आलोचना हुई क्योंकि हरियाणा सरकार ने प्रत्येक स्वर्ण पदकधारी एथलीट को तीन-तीन करोड़ रूपये की पेशकश की जबकि पड़ोसी राज्य ओड़िसा ने धाविका दुती चंद के लिए तीन करोड़ रूपये की घोषणा की थी।

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