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कागज के खेतिहर शैलेश मटियानी

कागज के खेतिहर शैलेश मटियानी

Monday October 16, 2017 , 4 min Read

देश के जाने-माने कवि-कथाकार शैलेश मटियानी कहा करते थे कि 'वह तो कागज पर 'खेती' करते हैं।' वह भारत के उन सर्वश्रेष्ठ कथाकारों में रहे हैं, जिन्हें विश्व साहित्य में इसलिए चर्चा नहीं मिली कि वे अंग्रेजी से नहीं आ पाए।

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उन्होंने अर्द्धांगिनी, दो दु:खों का एक सुख, इब्बू-मलंग, गोपुली-गफुरन, नदी किनारे का गांव, सुहागिनी, पापमुक्ति जैसी कई श्रेष्ठ कहानियां तथा कबूतरखाना, किस्सा नर्मदा बेन गंगू बाई, चिट्ठी रसैन, मुख सरोवर के हंस, छोटे-छोटे पक्षी जैसे उपन्यास तथा लेखक की हैसियत से, बेला हुइ अबेर जैसी विचारात्मक तथा लोक आख्यान से संबद्ध उत्कृष्ट कृतियां हिंदी जगत को दीं।

अपने विचारात्मक लेखन में उन्होंने भाषा, साहित्य तथा जीवन के अंत:संबंधों के बारे में प्रेरणादायी स्थापनाएं दी हैं। भारतीय कथा में साहित्य की समाजवादी परंपरा से शैलेश मटियानी के कथा साहित्य का अटूट रिश्ता रहा है। 

देश के जाने-माने कवि-कथाकार शैलेश मटियानी कहा करते थे कि 'वह तो कागज पर 'खेती' करते हैं।' वह भारत के उन सर्वश्रेष्ठ कथाकारों में रहे हैं, जिन्हें विश्व साहित्य में इसलिए चर्चा नहीं मिली कि वे अंग्रेजी से नहीं आ पाए। उन्होंने अर्द्धांगिनी, दो दु:खों का एक सुख, इब्बू-मलंग, गोपुली-गफुरन, नदी किनारे का गांव, सुहागिनी, पापमुक्ति जैसी कई श्रेष्ठ कहानियां तथा कबूतरखाना, किस्सा नर्मदा बेन गंगू बाई, चिट्ठी रसैन, मुख सरोवर के हंस, छोटे-छोटे पक्षी जैसे उपन्यास तथा लेखक की हैसियत से, बेला हुइ अबेर जैसी विचारात्मक तथा लोक आख्यान से संबद्ध उत्कृष्ट कृतियां हिंदी जगत को दीं। अपने विचारात्मक लेखन में उन्होंने भाषा, साहित्य तथा जीवन के अंत:संबंधों के बारे में प्रेरणादायी स्थापनाएं दी हैं। भारतीय कथा में साहित्य की समाजवादी परंपरा से शैलेश मटियानी के कथा साहित्य का अटूट रिश्ता रहा है। वह दबे-कुचले, भूखे, नंगों दलितों, उपेक्षितों के व्यापक संसार की बड़ी आत्मीयता से अपनी कहानियों में पनाह देते हैं।

शैलेश मटियानी सच्चे अर्थों में भारत के गोर्की थे। उनको आधुनिक हिंदी साहित्य में नई कहानी आंदोलन के दौर का प्रसिद्ध गद्यकार माना जाता है। उनका जन्म अलमोड़ा (उत्तराखंड) में हुआ था। बारह वर्ष की अवस्था में उनके माता-पिता का देहांत हो गया। उस समय वे पांचवीं कक्षा के छात्र थे। इसके बाद वे अपने चाचाओं के संरक्षण में रहे किंतु उनकी पढ़ाई रुक गई। उन्हें बूचड़खाने तथा जुए की नाल उघाने का काम करना पड़ा। पांच साल बाद 17 वर्ष की उम्र में उन्होंने फिर से पढ़ना शुरु किया। विकट परिस्थितियों के बावजूद उन्होंने हाईस्कूल परीक्षा उत्तीर्ण की।

मटियानी जी 1950 के दशक में अल्मोड़ा से दिल्ली आ गए। तभी से वह कविताएं और कहानियां लिखने लगे थे। दिल्ली में वह 'अमर कहानी' के संपादक, आचार्य ओमप्रकाश गुप्ता के यहां रहने लगे। तबतक 'अमर कहानी' और 'रंगमहल' से उनकी कहानियां प्रकाशित हो चुकी थीं। इसके बाद वह इलाहाबाद चले गए। उन्होंने मुज़फ़्फ़रनगर में भी काम किया। दिल्ली आकर कुछ समय रहने के बाद वह फिर बंबई चले गए। फिर पांच-छह वर्षों तक उन्हें कई कठिन अनुभवों से गुजरना पड़ा। वर्ष 1956 में श्रीकृष्णपुरी हाउस में काम मिला, जहाँ वे अगले साढ़े तीन साल तक रहे और अपना लेखन जारी रखा। बंबई से फिर अल्मोड़ा और दिल्ली होते हुए वे इलाहाबाद आ गए और कई वर्षों तक वहीं रहे। वर्ष 1992 में छोटे पुत्र की मृत्यु के बाद उनका मानसिक संतुलन बिगड़ गया। जीवन के अंतिम वर्षों में वह हल्द्वानी आ गए। विक्षिप्तता की स्थिति में उनकी मृत्यु दिल्ली के शहादरा अस्पताल में हुई।

उनकी कहानियों पर टिप्पणी करते हुए कभी राजेंद्र यादव ने स्वीकार किया था कि हम सबके मुकाबले उनके पास अधिक उत्कृष्ट कहानियां हैं। गिरिराज किशोर ने उनकी कहानियों का मूल्यांकन करते हुए उन्हें प्रेमचंद से आगे का लेखक माना।उन्होंने न सिर्फ हिंदी के आंचलिक साहित्य को नई ऊंचाइयों पर पहुंचाया बल्कि हिंदी कहानी को कई यादगार चरित्र भी दिए। मटियानी हमारे बीच वह अकेला लेखक है, जिसके पास दस से भी अधिक नायाब और बेहतरीन ही नहीं, कालजयी कहानियां हैं, जबकि अमूमन लेखकों के पास दो या फिर तीन हुआ करती हैं। कोई बहुत प्रतिभाशाली हुआ तो हद से हद पांच। वह रेणु से पहले का और बड़ा आंचलिक कथाकार थे। रेणु जब साहित्य लिख भी नहीं रहे थे, तब कहानियों को तो छोड़ो, शैलेश का उपन्यास और यात्रा वृत्तांत भी छप चुका था।

यह त्रासदी जैसा ही कुछ था कि इस लोकजीवन के कथाकार को उसके जीवनकाल में ही रेणु के नाम से जुड़े पुरस्कार से नवाजा गया और यह शैलेश मटियानी की विनम्रता और सरलता थी कि उन्होंने बहुत सहजता से इस पुरस्कार को लिया था। लिखना छोड़कर इसने भाजपा के मुखपत्रों की वकालत करनी शुरू कर दी और सब कर्म-कांडों को जायज ठहराने के नए तर्क गढ़े पर इससे कोई फायदा है? इससे उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता कि वहां कोई भी नहीं जो इसके इलाज के बारे में सोचे। इसकी बीमारी के लिए कुछ करे। 

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